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हो जाने दो मुक्त / सुनीता जैन
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यह सुबह शाम की बेकली
देह का मोह-उत्सव
सड़क पर टिकटिकायी
निगाह बावली
भरे-भरे दाँतों के
गुदे बदन पर नील कमल
जाने दो
हो जाने दो मुक्त
आज अपनी ही राख से
उडूँ झाड़कर पंख
चीर आकाश