भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो न सके खुलकर अपनों से / नईम
Kavita Kosh से
हो न सके खुलकर अपनों से,
वो भी कब किसके हो पाये ?
बीच धार में खड़े हुए हम
विकट ज़िन्दगी का ये मंजर,
पार उतरना, किन्तु डर रहे,
ढीले-ढाले अंजर-पंजर।
ख़ौफ़नाक हमले सपनों के,
नींद न हम अपनी सो पाये।
हो न सके हम पूत ठीक से,
पिता न हो पाये करीब से।
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते,
महँगाई में इस ग़रीब के ?
मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाये।
इनसे भी क्या गिला करें हम,
उनकी भी अपनी मजबूरी।
मिली कहाँ अब तक इन उनकी,
मेहनत की वाज़िब मज़दूरी ?
सोच-समझकर सौ जतनों से
दाग़ न हम अपने धो पाये।