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हो परमबन्धु तुम पतितों के / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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हो परमबन्धु तुम पतितों के, तुम दीनों के रखवाले हो।
जिसका अपना को‌ई न रहा, तुम उसके निज घरवाले हो॥
जो होकर सब जगसे निराश, जो सबसे दुत्कारा जाकर।
आता जो शरण तुम्हारी है जो कहीं नहीं आश्रय पाकर॥
तुम उसको, पाप-ताप हरकर हर्षित हो गले लगा लेते।
तुम उसको अभय-दान देकर अति पावन कर अपना लेते॥
तुम सबके सुहृद अहैतुक हो, तुम सबके अन्तर्यामी हो।
तुम सबके नित्य आतमा हो, तुम सबके सच्चे स्वामी हो॥
जो तुमपर है निर्भर करता, जो तुमपर न्योछावर होता।
वह छूट सभी जंजालोंसे, है सुखकी नींद सदा सोता॥
हम दीन तुम्हारे द्वार खड़े, हम पतित तुम्हारे पाँव पड़े।
हम घृणित तुम्हारे साथ लड़े, हम पापी अपनी आन अड़े॥
हम कहाँ जायँ ? हैं कौन यहाँ ? जो हमको अपना आश्रय दे।
है कौन कलमुँहा, हमको रख कलंक टीका सिरपर ले॥
ऐसे तो एक तुम्हीं दीखे, जो सबसे हृदय मिलाते हो।
बीती बातोंको याद न कर, जो सबको गोद खिलाते हो॥
करके विश्वास विरदपर जो आशा करके आ जाता है।
वह चाहे महापातकी हो, वह गोद तुम्हारी पाता है॥
तुम नहीं उसे लौटाते हो फिर दुःखालय भव-सागरमें।
वह शान्ति सनातन पाता है, मिल करके तुम नटनागरमें॥
हम भी करके विश्वास, इसी आशापर चरण शरण आये।
हम निश्चय तुमको पायेंगे, चाहे जो कुछ भी हो जाये॥