भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो रही है बेचैनी सी / जया झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो रही है बेचैनी सी, कुछ तो लिखना है मुझे,

ना हो बात जो ख़ुद पता पर, वो कोई कैसे कहे?


इंतज़ार की आदत जिसको, बरसों से है हो गई

मिलन के सपने बुनने की समझ उसे कैसे मिले?


उजड़े महलों पर ही नाचना, जिसने हरदम सीखा हो

रंगशाला की चमक भला, कैसे उसकी आँख सहे?


जिसने हँसना सीखा है, ज़िन्दग़ी के मज़ाक पर

दे देना मत उसको ख़ुशी, ख़ुशी का वो क्या करे?