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हो वसन्त! / रमेश नीलकमल
Kavita Kosh से
अँखियन में लउकता बबूल
हो वसन्त!
जनि अइहऽ गाँव का सिवाना पर।
अभिये नू खेत के फसल हरियर
पाला से सहमल झऊँसाइल बा,
भूख, दरद, बेकारी के कारण
गँवन के गति-मति बउराइल बा,
बेधत बा हियरा में शूल
हो वसन्त!
जनि अइहऽ दरद का मुहाना पर।
सच बाटे मौसम ई बचपन के
डेहुंगी के मोहभंग होखत बा,
चन्दन वन में बा उनचास पवन
धूनत बा सिर माली रोबत बा,
डूबे जब लागे मसतूल
हो वसन्त!
तब अइहऽ गाँव का सिवाना पर।