भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो सकता है / सुशान्त सुप्रिय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो सकता है
पहले-सा अब कुछ भी न हो

मेरा ठंडा ख़ून भी
एक दिन खौलने लगे
और मैं ज़ुल्म से लड़ना
सीख जाऊँ
ईंट का जवाब पत्थर से देना
सीख जाऊँ

हो सकता है
मैं तुम्हारी देह से नहीं
रूह से भी प्यार करने लगूँ
और आख़िर तुम्हारी रुलाई का अर्थ
जान जाऊँ

हो सकता है
मैं अपने होने वाले
किराए के क़ातिल का
हृदय-परिवर्तन कर दूँ
और वह भी
ज़ालिमों के ख़िलाफ़ मेरी जंग में
सहर्ष शामिल हो जाए

हो सकता है
पहले-सा अब कुछ भी न हो

एक दिन
लोगों की रगों में दौड़ता पानी
फिर से लहू बन जाए
और उनकी हुंकार सुनकर
ज़ालिम हाकिम
कंक्रीट-जंगल की अपनी गुफ़ा छोड़ कर
हमेशा के लिए निकल भागें

हाँ , हो सकता है
पहले-सा अब कुछ भी न हो

मैं ज़ुल्म से लड़ना सीख जाऊँ
तुम्हारी रूह से प्यार करना सीख जाऊँ
अपने किराए के क़ातिल को
इंसान बनाना सीख जाऊँ
कंक्रीट-जंगल की गुफ़ा में बैठे ज़ालिम हाकिमों को
हमेशा के लिए खदेड़ पाना सीख जाऊँ...