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ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी / सूरदास

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राग गौरी

ह्वाँ लगि नैकु चलौ नँदरानी!
मेरे सिर की नई बहनियाँ, लै गोरस मैं सानी ॥
हमै-तुम्है रिस-बैर कहाँ कौ, आनि दिखावत ज्यानी ।
देखौ आइ पूत कौ करतब, दूध मिलावत पानी ॥
या ब्रज कौ बसिबौ हम छाड़्यौ, सो अपने जिय जानी ।
सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी ॥

भावार्थ : -- (एक गोपी कहती है-)`नन्दरानी! तनिक वहाँ तक चलो ! मेरे मस्तक पर की नयी गगरी लेकर (तुम्हारे लाल ने) गोरस से लथपथ कर दी । हमारे और तुम्हारे में किस बात की खीझ या शत्रुता है जो अपनी हानि (स्वयं) कर दिखायेंगी । तुम आकर अपने पुत्र के करतब देख लो कि हम (कहाँ तक) दूध में पानी मिलाती हैं (झूठ बोलती हैं ) अपने मन में यह समझ लिया कि इस व्रज में बसना हमें छोड़ना ही पड़ेगा ।' सूरदास जी कहते हैं कि यह तो ऊसर पर हुई वर्षा के समान है, जहाँ थोड़ा-सा जल पड़ते ही पानी छलकने लगता है । अर्थात् थोड़ी सी सम्पत्ति या श्यामसुन्दर की थोड़ी-सी बाल-विनोद की कृपा पाकर ही यह ओछी गोपी अपनी सीमा से बाहर होकर इतराने लगी है ।