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ॠतु-वीणा टूटी है / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
यह जो ऋतु-वीणा है
जिस पर हम साध रहे गंध-गीत
टूटी है
दिन आदिम गंधों के
आकर कब लौट गए
कौन कहे
आँखों के आसपास
जले-हुए सपनों के
घेरे ही शेष रहे
नए-नए पत्तों के
फूलों के खिलने की चर्चा
सारी ही झूठी है
कल परियों ने आकर
ख़ुशबू से
दिन को नहलाया था
अपने इस उत्सव में
बच्चों को
ख़ास कर बुलाया था
हमने उस ख़ुशबू को
चुपके से सूँघा था
तबसे ऋतु रूठी है
चाँदी के गुंबज में
रहते हैं दानव -
वे घेर रहे
उथला है एक ताल
उसमें सब
मेंह-पर्व रात बहे
मीनारों से झरती
सोने की परछाईं
सुन रहे - अनूठी है