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३१ अगस्त / हरकीरत हकीर
Kavita Kosh से
इस दिन कई बार
फोन की घंटी बजती है
'जन्म -दिन मुबारक हो हीर '
के शब्द सुन
मैं भीग जाती हूँ भीतर तक
कितनी कणिकाएं आकाश से
उतर आती हैं
हथेली पर …
मैं चीखना चाहती हूँ
नहीं … नहीं आज मेरा जन्म -दिन नहीं
पर लापता हो जाते हैं शब्द
और मैं शब्दों को तलाशती
कब्रों पर जा बैठती हूँ
जो जाते वक़्त मुहब्बत
दबा गई थी
मिटटी के अन्दर ….