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७२० / २५० असलहों का कारीगर-3 / अनिल पुष्कर
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वो ऐसी चौखट पर चढ़ा
जिसे दिव्य समझता है
उसने सर झुका माथे लगाया ।
अब वो जिन सम्पदाओं को बेचना चाहता है
ख़रीददार मिलते ही
हाथ बढाए, कन्धे मिलाता है
जिन लोगों से उसे नफ़रत है
उन पर आग के गोले बरसाता है
एक हत्यारा पल भर में
कितनी ज़िन्दगियाँ लील सकता है ?
विशेषज्ञ पड़ताल में लगे हैं
गणितज्ञ हल करने में जुटे हैं
या विज्ञान कह पायेगा ?
विरोध की जबान में बुदबुदाहट हो चली है
कविता कुछ तो कर सकती है ।