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‌चल दिया दिन दुम दबाकर ‌धूप शर्माती चली / कन्हैयालाल मत्त

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चल दिया दिन दुम दबाकर
‌धूप शरमाती चली
‌शाम के होते न होते
‌रह गई सूनी गली !

‌जल उठा फिर दीप धुन्धला-सा
‌किसी की याद में
‌एक बत्ती कण्ठ तक डूबी
‌फिसलनी गाद में
‌सामने के मोड़ पर
‌पथ में घुलीं परछाइयाँ
‌हैं अभी उलझी
‌क्षणिक अस्तित्व के प्रतिवाद में

‌सुबह तक अवकाश ले बैठा
‌समय का अर्दली !

‌झिरझिरा घूँघट उठाकर
‌झाँकती नीलम-परी
‌दूर कोने में खड़ी
‌अवधूत की बारादरी
‌बर्फ़ पर धूनी रमाने को
‌अपर्णा व्यग्र है
‌धूसराधर क्षितिज की
‌मुद्रा हुई बाघम्बरी

‌सर्जनाओं की हुमक-सी
‌वर्जनाओं में पली !

‌चान्दनी बिस्तर बिछाकर
‌सो गई दरगाह में
‌ढूँढ़ता फिरता पथिक मंज़िल
‌रतौन्धी राह में
‌सैर को निकली हिमानी
‌गुदगुदी करती हवा
‌दूरियाँ ख़ामोश बैठी हैं
‌थके उत्साह में

‌है पड़ी चौपाल पर
‌दम तोड़ती-सी बुरकली !