‘अस्ल मुहब्बत : भाग 10’ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
मैं मानता हूँ कि तुम किसी हूर की परी जैसी खूबसूरत नही थी,
हां बिल्कुल भी नहीं।
मै मानता हूँ कि मेरे चेहरे पर मेहताब़ सा अक्स था
लेकिन मैं मेहताब़ भी नहीं।
मैं अक्सर सुनता था कि लड़कियां ज्यादातर बोलती बहुत हैं,
मगर तुम मेरे कहने पर भी ज्यादा बोलती नही थी।
मैं अक्सर चाहता था कि मेरी मुहब्बत, मेरी महबूबा,
'नूर-ए-जहां' हो, जन्नत की महफूज़ रवां हो!
ना परियों सी सुन्दरता,
ना चिड़ियों सी चहक !
ना गुलमोहर सा बदन,
ना फूलों सी बहारे-मस्ती ।
लेकिन कुछ तो था तुम में,
जिससे मुझे बेतहाशा मुहब्बत थी!!
वो शायद! तुम्हारी बचकानी हरकत थी,
या फिर शायद, तुम्हारी बेखौफ़ मासूमी'अत!
वो शायद! मेरा दीवानापन था,
या फिर मेरी रुहानी जरुरत !!
तुमने इज़हार भी नही किया था अभी तक,
फिर भी मेरे सीने से तुम बच्चों सी लिपट
जाया करती थी !!!
क्योंकि,
तुम्हें मुझसे पूरी सहूलियत थी !!
नादान! बड़ी नासमझ निकली तुम,
हां, यही "अस्ल मुहब्बत" थी !!!!!