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‘अस्ल मुहब्बत : भाग 40’ / जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'

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(" तुम्हारी यादें कचौंध देती हैं, मुझे ")

जब भी मैं कोई हसीन ख़्वाब देखता हूँ
तो देखता हूँ, हल्की - हल्की बारिश में,
चुनर को छाता बनाए हुए,

तुम भागी चली आ रही हो, मेरी जानिब!!

और,
मैं बेवाक खड़ा भीग रहा हूँ कि
जैसे किसी छत के साये में हूँ।

बिना शोर करती पवन में,
तुम्हारे गेसुओं की घुंघरीली
लटाये घुंघरा रही हैं

मुख पे भीगने का इक अन्जाना सा डर
और गालों पे बरसात की नयी नयी बूंदें
क्या?, खूबसूरत नज़ारों का गहना बने हुए हैं !

तुम मेरे बेहद करीब आ जाती
और सिमट जाती मेरी बाहों में !

डाटती,
फटकारती,
मेरे माथें पे अपनी उँगलियों के पोरवों से मारते हुए कहती,

"भीगनें में क्या मज़ा आ रहा है,तुम्हें ?"

कहीं तब जाकर मैं ख़्वाबों की दुनिया से बाहर आता
और तुम्हें बाहों मे पाकर तो मानों मन उछल पड़ता !
फिर बाहर से तुम खींच ले जाती वहीं के रेस्ट्रां के भीतर !!

आज भी ये ख़्वाब-ओ-ख़याल देखकर
 मैं जब रात को जाग जाता हूँ !!!!!!!!!!

"तुम्हारी यादें कचौंध देती हैं, मुझे" ।