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‘इन्सान’ के जन्म की प्रतिक्षा / विमल राजस्थानी

या कि हिन्दू मरे, या कि मुस्लिम मरे
खून जो भी बहे वह है इन्सान का
एक बन्दा है प्यारा-सा अल्लाह का
एक सेवक दुलारा-सा भगवान का

सबका है एक ही जन्मदाता यहाँ
एक ही खून है, एक ही चाम है
एक ही नूर के सैंकड़ो नाम हैं
जिसको कहते ‘खुदा’ रे! वही राम है

धर्म का मजहबों से नहीं वास्ता
‘धर्म’ तो नाम है ठोस ‘ईमान’ का

दफ्न इन्सानियत तो कभी की हुई
चिह्न भी कब्र के अब कहाँ शेष हैं ?
बस दरिंदों से सारा जहाँ पट रहा
आब की ही तरह खून भी पेश हैं

सिरफिरों पर है काबिज़ यहाँ वहशियत
पागलों पर चढ़ा जिन्न शैतान का

सब हैं बन्दे यहाँ राम के, श्याम के
हैं खुदा के सभी बेटे औ‘ बेटियाँ
खुद को हिन्दू, न मुस्लिम, कहो आदमी
क्यों बहे फिर लहू, क्यों कटें बोटियाँ

शंख मस्जिद में, मंदिर में गूँजे ‘अजाँ’
मुँह छिपाती फिरे यह कमीनी कज़ा
पूरी दुनियाँ की जब यूँ ही बदले फिजाँ
जन्म होगा तभी तो रे! ‘इन्सान’ का