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‘काया’ मैं न, ‘जीव’ तुम हो नहिं / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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‘काया’ मैं न, ‘जीव’ तुम हो नहिं, ‘दाता’ तुम न, नहीं मैं ‘दीन’।
‘प्रकृति’ नहीं मैं, ‘पुरुष’ नहीं तुम; ‘माया’ मैं न, ‘ब्रह्मा’ तुम भी न॥
नहिं ‘नायिका’ हूँ मैं, तुम भी नहिं यथार्थतः हो ‘नायक’।
नहीं स्वरूपतः ‘परकीया’ मैं; नहीं ‘जार’ तुम सुखदायक॥
नहीं ‘स्वकीया’ पतिव्रता मैं; नहीं ‘विवाहित’ तुम स्वामी।
मैं न तुम्हारी ‘साध्य’, नहीं तुम मेरे ‘पथके अनुगामी’॥
किंतु सभी ये सत्य, चिरंतन, शुचि, मधु असंबंध-संबंध।
जहँ न मुक्ति की कहीं कामना, जहाँ न को‌ई किंचित्‌‌ बन्ध॥
अनुपम अतुल अचिंत्य अनिर्वचनीय तुम्हारा-मेरा सव।
अनुभव करते हैं हम, पर न बता सकते रहस्यमय तव॥
अखिल भेद-विरहित हम हैं नित, निज-स्वरूप-रस-रसधि-निमग्र।
नित वियोग-संयोग-रूपमय, नित्य वियुक्त नित्य संलग्र॥
वृन्दारण्य, ललित लीला-स्थल, कालिंदी-जल कलित तरंग।
बृच्छ-वल्लरी वनज विहंगम, धातु विचित्र विविध रुचि-रंग॥
मलय-पवन, उद्दीपन-साधन, राका-रश्मि-सुधा अभिराम।
मुरली मधुर सुधा-रस-सरिता, परिकर-मंजरि सखी ललाम॥
नित्य नवल कमनीय केलि रस, मधुर परम नव नित्य विहार।
निज स्वरूपगत सभी दिव्यतम लीला-रस-‌अभिव्यक्ति अपार॥
इतनेपर भी हो तुम मेरे प्रियतम परम प्रान-‌आराध्य।
नित्य मिले रहने पर भी, तुम नित्य लक्ष्य, नित मेरे साध्य॥
पाना तुम्हें तुम्हीं से पाना, नित्य पा रही तुम्हें अनंत।
पाने की, इस परम साधना का न कभी आयेगा अंत॥