‘जा रहल छी’ / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
पर्व गंगा सिन्धु संगम, लगन संक्रमणक अनूपम
अंग-अंग उमंग पुण्य प्रसंग काल तरंग चक्रम
कविक कविता गिरिक सरिता सिन्धु बिन्दु सजा रहल छी
जलधि उच्छल छहरि नहरि नहा रहल छी, जा रहल छी
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पार्थ छथि ठकुऐल ठाढ़े, कुरु क्षेत्रक व्यूह गाढे
सारथीक मुखेँ समुख-गीता सुनाबय जा रहल छी।।1।।
सिन्धु तटपर दर्भे आसन, बैसि रघुपति करथि अनशन
दमन हित उठबथु शरासन से सुझाबय जा रहल छी।।2।।
मान व्यक्तित्वक बचत नहि, जा’ न राष्ट्रक मान जाग्रत
तथ्य ई पुनि मानसिंहहु केँ जनाबय जा रहल छी।।3।।
हल्दिघाटिक शिला तापी, क्षुधित क्यौ उद्भट प्रतापी
संग भामा-चेतकक रस रसद पठबय जा रहल छी।।4।।
जौहरी चित्तौर एखनहुँ, स्वर्णवर्णक शुद्धि रखनहुँ
बनि विकष पाषान कनकन, कनक कसबय जा रहल छी।।5।।
सोमनायक घड़ी-घटा बिश्वनाथक बड़द बठा
लटपटैल झमैल तकरा, पाचि चढ़बय जा रहल छी।।6।।
विजय-नगरक खडहरकेँ दुर्ग दुर्गस बनयबा लय
बुक्क हरिहर संग विद्यारण्य बजबय जा रहल छी।।7।।
शिव भवानी खड्ग धारा, युग अपूजित रक्त धारा
अपन बलिदानी असृगदय, बीझ छोड़बय जारहल छी।।8।।
छथि प्रतापादित्यअस्ते, गुप्त चन्द्र कुमार अस्ते
विग्रँही ग्रह राहु केतुक तिमिर चौरय जा रहल छी।।9।।
वधनक कटु शृंखलाकेँ, थुरय थिर जीवन गला कय
क्रान्ति-वीरक मुखबिरक बढ़ि खबरि लेबय जा रहल छी।।10।।
कते एखनहु मीर जाफर, सफरमैना चग्द नानक
सिंह जयक शृंगाल दलहुक, गाल गलबय जा रहल छी।।11।।
ढुकि घरहु वा आङनहु गहि, जे फुकय घर आततायी
गृह-कलह अनलक लपट, दुःसह-उठाबय प्रत्यवायी।।
द्वेष-द्वंद्वी लोभ फंदी, मंदमति पर-प्रत्ययी जे-
तकर भंडाफोड़ करबा लय, समाज सजा रहल छी।।12।।
भयक थरथर, लोभ जर्जर, काम कलकल, दाम दलमल
मूल समाजक पथ पतितकेँ सुपथ चलबय जा रहल छी।।13।।
श्रमिक श्रमसँ मिलल सपना, कृषिक कणसँ कनक कलना
पुंज लुंजित कय प्रपंची, झुलय पूजीपतिक पलना
तनिक बकक बहुल अंकाबलि मेटाबय जा रहल छी।।14।।
जे विपन्नक अन्नपूर्णा, छिनय ऋण-कण कीर्ण जाले
जन विपतिसँ वितत संपति अरजि भू-धन गरजि काले
तनिक पंक कलंकके निर्मम धोखारय जा रहल छी।।15।।
बुद्धि रहितहुँ जे अबुद्धे शुद्धि रहितहुँ जे अशुद्धे
जन समाजक लाज बेचथि, घूस फूसि बजार लुब्धे
खोरि चोरिबजार घुसखोरी, जराबय जा रहल छी।।16।।
आइ नहि कवि! रोध मानव, छनहु नहि गति रोध आनब
युगक आहि बताहि कैलक, तदनु ई अनुरोध जानब
रमु, बिलमु अध-वध अवधि, हम विजय बजबय जा रहल छी।।17।।