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‘भितरघातें’ मुझे करना नहीं आता / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
भितरघातें मुझे करना नहीं आता
मुझे उसकी तरह लड़ना न्हीं आता
कोई मुझे देख ही ले, इसलिए उठकर
किसी के पास आईना नहीं आता
मैं आदम हूँ मैं तन कर झुक भी जाता हूँ
वो पर्वत है, उसे झुकना नहीं आता
लजाती है लजाकर मुस्कुराती है
कली को फूल-सा हँसना नहीं आता
नदी बनकर जो चलती है हिमालय से
समंदर तक उसे रुकना नहीं आता
जो पंखों के बिना उड़ते हैं, गिरते हैं
मैं थलचर हूँ मुझे उड़ना नहीं आता