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’मीर’ को कोई क्या पहचाने मेरी बस्ती में / एहतराम इस्लाम
Kavita Kosh से
’मीर’ को कोई क्या पहचाने मेरी बस्ती में,
सब शाइर हैं जाने-माने मेरी बस्ती में।
आम हुए जिसके अफ़साने मेरी बस्ती में,
वो मैं ही हूँ, कोई न जाने मेरी बस्ती में।
रुत क्या आए फूल खिलाने मेरी बस्ती में,
हैं काशाने-ही-काशाने मेरी बस्ती में।
घुल-मिल जाने का क़ाइल हर कोई है लेकिन,
हैं आपस में सब अंजाने मेरी बस्ती में।
मेरी ग़ज़लों के शैदाई घर-घर हैं लेकिन,
कौन हूँ मैं यह कोई न जाने मेरी बस्ती में।