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“जाते थे उभर आर्द्र अम्बर से पीन पयोधर पीत प्रिये! / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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“जाते थे उभर आर्द्र अम्बर से पीन पयोधर पीत प्रिये!
ढाँकती-दाबती कमल-पाणि-तल से उरोज-नवनीत प्रिये!
मत उड़ें विहँग से अतः बाहु-बन्धन का किया विधान प्रिये!
जाती थी अहा उभर अधरों पर मधुर मन्द मुसकान प्रिये!
माथे पर विखर गया कुंकुम ये लोचन कज्जल श्याम प्रिये!
देखते वाम-दक्षिण दिशि थे युग नलिन-नयन अभिराम प्रिये”!
आ करूण-तरूण-मानस! विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलनें पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥118॥