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“जोहते रह गये विकच कुसुम पर तुमने हे वृषभानु-लली! / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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“जोहते रह गये विकच कुसुम पर तुमने हे वृषभानु-लली!
घबरायी खिले प्रसून छोड़कर तोड़ लिया अधखिली कली।
जो कल बनती सुरभित प्रसून क्या उसनें नहीं कष्ट झेला ?
उठ पाता नहीं आज भी मेरे मन से सुधियों का मेला।
निर्णय कर पाता नहीं भूल की यह सच थी किसकी क्रीड़ा ?
तुमको हमको या कालिका को, किसको वल्लभे! मिली पीड़ा ?”
आ पीड़ा-हर पीड़ा-सर्जक! बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलनें पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥120॥