”स्वाधीन कलम“ / विमल राजस्थानी
कीर्तिशेष अभिन्न कवि-बंधु नेपाली की मृत्यु-तिथि पर
”स्वाधीन कलम“
चलते-चलते रुक गयी आह! मेरे कवि की ‘स्वाधीन कलम’
लाखों का दिल ले गयी चुरा तितली-सी चपल हसीन कलम
बचपन ठुमका ‘पीपल’-नीचे
किलकारी ‘हरी घास’ सींचे
हिम-शिखरों पर मन छितराया
झरने उछले पीछे-पीछे
घन-कुन्तल की छवि-छाँह तले
‘देहरादून के मधुर बेर’
बाँटे जिसने अंजलि भर-भर
कचनार प्यार के ढ़ेर-ढे़र
चंचल जल में छवि-चरण डाल, रस-वर्षण में लवलीन कलम
तितलियाँ, झील, झरने, झरमुट,
पंछी को प्यार किया जिसने
जग को तो बाँटी प्रीत किन्तु,
हँस-हँस कर ज़हर पिया जिसने
जिसने दुनिया को मस्ती दी
गीतों में भर अलमस्ती दी
नयनों के सूने अम्बर को-
झिलमिल तारों की बस्ती दी
छवि की पैंजनियों की रुन-झुन में रसी-बसी तल्लीन कलम
हँस-हँस सर्वस्व लुटा कर भी जो बनीं नहीं रे दीन कलम
हम लाख लुटायें शब्द-सुमन
गंगा-यमुना की धार बहे
अब लाख कीर्ति के बोल करुण-
मंचों पर जायें सुने-कहे
करुणा न हमारी निरावरण
आँसू मोती बन सके नहीं
चल दिये चुरा कर गीत, मगर,
आहें सुन कर हम रुके नहीं
इसलिये खरीदी नहीं गयी आँसूवाली नमकीन कलम
बिखरे-टूटे तारों वाली कोकिल-कंठी कवि-बीन कलम