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(सुनो चारुशीला) भूमिका / नरेश सक्सेना

Kavita Kosh से
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वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी मेरे लिए गुरुतुल्य हैं। उन्होंने लगभग दस वर्ष पहले मेरे प्रथम कविता-संग्रह की तैयारी के मौके पर उसकी एक एक-एक कविता को ठोंका-पीटा-तराशा-छाँटा था और मुझे कई-कई बार घंटों समय देकर अच्छी कविता लिखने के गुर सिखाए थे।

आज शिक्षक दिवस पर उन्हें प्रणाम करते हुए मित्रों को उनके दूसरे कविता-संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ से परिचित कराना चाहता हूँ जो भारतीय ज्ञानपीठ से अभी-अभी आया है।

यह संग्रह उनकी अप्रतिम कविताओं से गुजरने का एक अद्भुत एवं आनन्ददायक अवसर उपलब्ध कराता है। इस संग्रह की एक अत्युत्तम कविता है ‘गिरना’ जिसका अंतिम अंश नीचे दे रहा हूँ। इसे पढ़कर आपके भीतर खुद बेचैनी होने लगेगी इस पूरे संग्रह को पढ़ने की।


खड़े क्या हो बिजूका से नरेश,
इसके पहले कि गिर जाये समूचा वजूद
एकबारगी
तय करो अपना गिरना
अपने गिरने की सही जगह और वक़्त
और गिरो किसी दुश्मन पर

गाज की तरह गिरो
उल्कापात की तरह गिरो
वज्रपात की तरह गिरो
मैं कहता हूँ
गिरो। —

उमेश चौहान