...कुछ न समझे खुदा करे कोई / कुमार अनुपम
(अवाँगार्द की डायरी से बेतरतीब सतरें)
मेरी मृत्यु
किसी और को
न मिले
भले मिले
मेरे हिस्से का जीवन
पुरखों के पसीने का रंग
संसार के
मुसकराते स्वस्थ चेहरों पर
जैसे मिलता ही रहा है
मेरा जीवन
किसी और को
न मिले
कि
निभा न सकूँ
अपना पुश्तैनी धर्म
ऐसा कतई न हो…
1
मरने के कई ख़याल हैं और
ताज़ादम उनके ऐतराज हैं
सही नाम पूछने के कई ख़तरे हैं
जिन्हें
स्थगित करना
पाप के पहलू में करवट बदलने की गुंजाइश भर धर्म है
भूलन माट्साब के हिज्जे की चूक
का तकियाकलाम है कि तुम
जिसे मेज़ कहते हो उसे SEZ कह सकते हो
SEZ को मेज़ कहते हुए सुनने का स्वाँग कर सकते हो
तुम सुरक्षित नागरिकता को
अपनी पैंट की जि़प पर ऐसे टाँक सकते हो जैसे लेवी-स्ट्रॉस का टैग
करने को तुम ऐसा भी कर सकते हो कि कातर किसानों
से बिना सींच उगाही गयी आमदनी
किसी कैलीफोर्निया की अपनी प्रेमिका
के बार-बिल पर लुटा सकते हो
दलित के घर जबरन निमन्त्रित होकर ज़मीनी हो सकते हो
धुरन्धर धर्म की नास्तिकता हो सकते हो
कि सही नाम पूछने के कई ख़तरे हैं
खेतों के घाव की पपड़ी हो सकते हो
जो कि तुम हो
और एक दिन
खेतों की आह से झुलसकर
रफ़्ता रफ़्ता गिर सकते हो
2
नीमअँधेरा है
नींद के हाथों की चपेट में मच्छर आते हैं
मर जाते हैं मुझमें हत्यारे का विष छोड़कर
जिन पर निशाना साधता हूँ बच बच जाते हैं
मैं मर जाता हूँ एक हत्यारे की मौत
मेरी मौत का फ़ातिहा मत पढऩा अपना तिल तिल क़ातिल हूँ
3
खेत में
पहाड़ हैं
पहाड़ पर
खेत हैं
4
मैं
नहीं कर सकता किसी की हत्या
अपनी तृष्णा के सिवा
गोकि
हथेली के मंगल पर बैठा एक तिल
लगाए हुए है घात -
5
सारंडा के जंगलों में बीड़ियों और ज़ख़्मों और हक़ की रौशनी में
बजट की बही पढ़ी जा रही है
यह मार्च दो हज़ार ग्यारह की तारीख़ी इकाई है
समानान्तर भविष्य
जिसमें अतीत की शक्ति का सन्तुलन तय हो रहा
6
गन्ने के खेत थे मेरे पास अपने गाँव में
अब
उनकी डिस्टलरी फैक्ट्री है
मेरे पास अब बंजर
का मुआवज़ा
7
छुपाए रहा अस्थियों के कवच में अपने निष्कलुष पाप
कत्थई पुश्तैनी पुण्य सुर्ख़रू रहे
अपने ही थे
जिन्होंने छुड़ा दी मिट्टी
मेरी जड़ों से उनके नाख़ून
अब जाने किस हाल होंगे
लड़ाइयाँ छोटी हों या बड़ी
आशंकाएँ बनी ही रहती हैं मृत्यु की
साहस खर्च हो जाता है
अपने ही थे
जिहोंने बार बार सिखायी लड़ने की कला और
डाभ की तरह उछाल कर मेरा जीवन
समुद्र के हवाले कर दिया…
8
अपनी बात कहना चाहता हूँ
आप यदि सुन सकें
हुज़ूर मेरी अस्थियों का अनुनाद
आपकी घिसती हुई त्वचा की आवाज़ है
आपके उसाँस के अन्तिम छोर पर मेरे शब्द
खड़े हैं बहुत शालीनता से अपने को सँभालते हुए
यह आपके
दयनीय होने का समय है
और मेरी भूमिका यहाँ से शुरू होती है…
9
दिन बहुत बाद में आता है
और बहुत पहले चुक जाता है अपनी लम्बी छाया छोड़कर
चाहे कोई भी ऋतु हो
कोहरा घिरा रहता है रात की तरह
साँस आख़िरी तारे की तरह टूटती है उस शोर के बीचोबीच
जिसमें ज़ोर देकर
खेतों को ज़मीन कहा जा रहा
हुजूर बिवाई-फटे पुरखों के पाँव हैं हमारे खेत जिन्हें अपने रक्त से सींच उन्होंने नम किया उगाया अन्न कि संसार स्वस्थ रहे
नहीं हुजूर जूते नहीं थे नहीं हैं उन पाँवों में नाल-ठुँके जो अब उन पाँवों को ही रौंद रहे हैं
अनगिन बार खर पतवार धँसे दर्द छलक आया उन्हीं पाँवों में सूरज फफोले सा उगा
आँधी बरखा बाढ़ आयी मगर डिगा नहीं पायी उनकी साध
हुजूर खेत हमारे पुरखे हैं उनकी आस
हम अपने पुरखों को बेचने से करते हैं मना तो आप शोर का अजब समारोह ठान देते हैं जिसमें नाचने के लिए एक विनम्र इनकार को विवश किया जा रहा आँसू गैस छोड़ी जा रही अधनींद जगाकर लाठियाँ बरसायी जा रहीं तलुओं और ललाट पर मारी जा रही हैं गोलियाँ कि हम लहराते हुए दिखें
यह कैसा लोकतन्त्र है जिसमें
हमारे ही शब्द हमारे मुँह में ठूँस
हमें चुप किया जा रहा है
अचानक अवतार की तरह आप दिखाई देते हैं सच्चे हमदर्द की तरह मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ भागे चले आते हुए गमछा लपेटे सफेद गाँधी-टोपी सँभालते
आपके अपनेपन की धज के भ्रम में बताती है मेरी किशोर बहन कि अपना विरोध और जान समेटकर आपकी फौज से बचकर भाग गये हैं किसी तरह गाँव के सारे के सारे मर्द हमारी रक्षा के लिए यहाँ कोई नहीं है
आप क्या जवाब देंगे हुजूर कौन सी सान्त्वना
उसकी सरलता आपको जख्मी क्यों नहीं करती और आप उसके हाथ की बनी पकौड़ी खाकर मुसकराते भर हैं
हुजूर माफ करें कि गाँव में कोई बड़ा बूढ़ा भी नहीं सुजान जो टोक सके इस कमउम्र नागरिक-निवेदन को हाकिम से ऐसा बेजा सवाल करने से कि गाँव में कब लौटेंगे लोग खेत सूख रहे हैं उनकी चिन्ता में
आपके चेहरे का पानी किस कूटनीति में डूबा है हुजूर जिसका विरोधी हमें सिद्ध किया जा रहा
लोहा-लंगड़ प्लांट-श्लांट प्रगति की कब बने नयी परिभाषा किस देश की पाठ्य पुस्तक में पढ़ा यह पाठ कि अन्न और आदमी अपदस्थ हुए विकास की नयी अवधारणा से हुजूर हमें बोलने दें हमारा जैविक अधिकार है
हमने आपको महज पाँच सालों के लिए चुना है इसे याद रखें हुजूर यह मुल्क आपके ही पुरखों की मिल्कियत नहीं इसमें हमारा भी हिस्सा है हमारा भी रक्त जिसका रंग लेकर उगेगा दिन और आप रँगे हाथ पहचान लिए जाएँगे
10
अपने क़स्बे में आया मैं बहुत दिनों बाद
प्राचीन बेरोज़गारी के साथ मित्र
मिलने आये
घर जा जाकर बुज़ुर्गों से पैलगी करता रहा
वे भी मिले वैसे ही
उतना असीसते
जैसे दिल्ली से मिले एक क़स्बा क़दीम
कुछ ने तो कह भी दिया कि चुनाव हैं नगीच
कहीं भैया आप भी…
फिर भी
रहा मित्रों के संगसाथ गलबँहियाँ डाल
कुछ पुराने दिनों में पुनः गया
पटिया पर चाय पी भूजा फाँका
बैठा रहा रेलवे लाइन के पास देर रात तक
जैसे यात्रा हो शेष
कुछ पुरानी प्रेमिकाएँ मेरे गिरते हुए बालों पर हँसती रहीं देर तक
मैं भी उनकी झुर्रियों में हँसा
इस बीच वे माँएँ थीं
मैं भी एक पति और पिता दुनियादार
उनके पति स्टेशन तक मुझे विदा करने आये
आओ ना कभी दिल्ली - हाथ हिलाते हुए रेल की खिड़की से
- ईमेल करना अपनी सीवी, कुछ करता हूँ - कहते हुए
आख़िर मैं लौट पड़ा ऑफिस-तन्त्र में
अपनों में रुक गया था दो दिन ही अधिक
और छुट्टी मंजूर न थी…
11
ललछहूँ चोंचवाली बत्तखें किस लीक पर चलती चली जा रही हैं
किसी क़सम
किसी प्यास
किसी धोखे
किसी प्रेम
या किसी गर्दिश की गिरफ़्त में
और गज़ब कि यक़ीनन यह भी
किसी शायद की धूसर दुपहर है
बत्तखों की पुतलियाँ हैं कि पपड़ाये पोखरे में तैरने की आतुर आकांक्षा
जिनसे हरे पानी का वाष्प उठता है
हो सकता है उनमें कमल खिले हों
मछलियाँ करती हों उनका तवाफ़
केकड़े जोंक और घोंघे वहीं आरामफ़र्मा हों
धूप वहीं इन्द्रधनुष ताने हो
एक जल-पारिस्थितिकी वहीं विकसित हो
बत्तखों की क्रेंकार में यह पानी की गुँगुवाती आवाज़ का अक्स है
दृश्य पानी पानी एक मुहावरे में डूब रहा है…
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यह वक़्त मुफ़ीद नहीं है कि तलाशे जाएँ इतिहास की गर्द में दबे पदचिह्न
विकट वेग से बढ़ रहे हैं टैंक हर ओर से
चीत्कार की पृष्ठभूमि ललकार रही है शान्तिसाधकों का बुद्धत्व
आकाश से गिर रही हैं पट् पट् परकटी उड़ानें लगातार
यह वक़्त मुफ़ीद नहीं है कि प्रलापा जाय पश्चात्ताप का प्रपंच
या किसी सबल मंच को निहोरा जाय
तर्कसम्मत है यही
कि कहीं से भी
पुकारा जाय
अपने ही नाम को
अपनी ही शक्ति को
अपने ही आप को और छिन्न भिन्न किया जाय दुर्वासा-शाप को
यह वक़्त मुफ़ीद मुहूर्त का दिशाशूल…
फिर भी…
13
घासफूल खिला
सफ़ेद उजला निदाग़
संगमरमर पर लगे काजल टीके सा दीप्त
पिटूनिया की तरह नहीं
ट्यूलिप की तरह नहीं
गुलाब की तरह तो कतई नहीं
घासफूल की तरह घासफूल खिला
फ़रिश्तो
इनकी लघु मुस्कान की उजास में धो लो अपना चरित्र
इनकी सुगन्धि से भर लो नासापुट
महसूस सको तो इनकी नश्वरता स्पर्श कर अमर हो जाओ
ख़ुशामदीद अन्न के बीजो कहते हुए बचे खुचे खेत तैयार हैं
ये रजस्वला धरती के डिम्ब हैं
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आप सब जानते ही हैं जानने की रील रिवाइंड करने के लिए कहता हूँ
और आप पाते हैं कि जो दृश्य पर दृश्य आपकी दृष्टि से गुज़रे वापस पाँव खींच रहे हैं जो कुछ देर पहले फैली थीं याचक आशाएँ उनकी हथेलियाँ वापस हो रही हैं और अब उनमें कहीं स्वाभिमान की झलक सी है और जिस करोला का दरवाज़ा एक अकड़ खोलकर उतरी थी अब उन्हीं दरवाज़ों के काले शीशे में दुबक गयी है वापस भाग रही है कार यातायात के भीषण कोहराम के बीच सहसा आप पाते हैं कि आदत आशंका के हवाले हो रही है पृष्ठभूमि से जो आ रही हैं ध्वनियाँ हौलनाक़ और अबूझ हैं
तमाम कारनामे जो आप कर गुज़रे उनसे वापस भागते हुए आप गत कशमकश से साफ़ बरी हो रहे हैं अब एक पवित्र शान्ति आपके भीतर लौट रही है
कुछ हरकतें तो आप जैसे किसी रत्ती भर न्यूज़ को तानने की तरह बार बार दुहराते हुए ख़ुद को पाते हैं और जो खीझ आप में जाग रही है उसकी स्थिरता की राह पर ख़ुद को निरा बच्चा पाने लगते हैं बिलकुल मासूम सा जो सब जानने के लिए अपनी आँखें और कुतूहल की एकाग्रता दृश्य के सही कोण पर कैमरे के लेंस की तरह सेट कर रहा है स्टिल कर रहा है
यूँ तो आप सब जानते ही हैं और मैं उस बच्चे की उतनी ख़ुशी का जि़क्र तक नहीं करूँगा जो आप दोबारा पाते हैं…
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मेरी त्वचा की दीवार से तुम्हारे आसरे की पीठ टिकी है
इधर मैं हूँ उधर तुम
इस तरह मैं तुम इधर उधर दो दीवार हैं
दो दीवार के बीच हम नदी की शक्ल बहते हैं
आख़िरश हम दिगम्बर
दिक् अम्बर की त्वचा है
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चीज़ों का बढ़ता ही गया आकार
और जगर-मगर
अपनी पुतलियों-सा
सिमटता
मेरा वजूद और साँवला होता गया
मार्च करता
गुज़रता ही रहा
अश्लील भरा-पूरा बाज़ार
जैविक ज़रूरतों की ओट
मैं बच्चे-सा दुबकता रहा भरसक
एक हाहाकार हौलनाक़
ब्लैकहोल-सा
ऐन मेरी जेब में
चक्कर काटता रहा
जिसमें मैं
परवश अनचाहे
कगार की मिट्टी-सा
कटा
गिरा
गिरता ही रहा
क़तरा क़तरा
अपने सहलग संस्कारों के साथ…
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हवा की ज़द में है सारा मौसम
कि मौसमों का रुख़ हैरतअंगेज़
हैं नेज़ा नेज़ा ज़मीं के ज़र्रे
फ़लक की बन्दिश उफुक प’ कसती ही जा रही है
दिशा दिशा अय्यार जैसे हज़ार सूरत बदल रही है
ये कैसी कोशिश
बुलन्द ताबिश
कि ख़ाब तक है जहाँ की हालत
मसाफ़तों के हुजूम रिश्तों के दरम्याँ तक उतर गये हैं
तमाम रिश्ते बिखर गये हैं
दिलोनज़र का भरम ये कैसा
ये कैसी काविश
कि जैसे ऐसी
ही सूरतों की ऐहतरामी
को जाने कब से तरस रहे थे
तेज़ रौ कारवाँ ये वहशत का
हरेक दिल के
अजान गोशों में ज़लज़ले सा
उतरता जाए है रफ़्ता रफ़्ता
कि भरता जाए है रफ़्ता रफ़्ता…
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सुनामी की तीस फुट ऊँची लहरों के सामने भौचक एक स्त्री अपनी तीन साल की बिटिया और असहायता के साथ घुटने के बल बैठ गयी है एक दूसरी तस्वीर में विमान और कारें खिलौनों की तरह ढेर की ढेर पड़ी हैं आँसुओं के तमाम ज़ार ज़ार घर हैं
दुख ख़फ़ीफ़ हर्फ़ है जैसे कि आँसू में प्रार्थना का भार जिससे देवता दबे कराह रहे
देवता तुम्हारी चप्पलें टूट गयी हैं और हवा और पानी में तुम्हारी साँसों की झझक है
बच्चों की आँखों में सपनों से डबडबाया पानी है जिसमें पत्थर एक दूसरे से टकरा रहे हैं चिनगियाँ लपक लपक उठती हैं
टूट जाएँ नट बोल्ट तो रुक जाती हैं मशीनें जि़न्दगियाँ नहीं
कि जापान आवारा नहीं…
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जापान जापान में नहीं है जहाँ था वहाँ लाशें हैं मलबा है ख़ून है असहायता है सुनामी है आग है जापान दुनिया की आँखों में भर गया है निचली पलक के ऊपर टिका है पुतलियों के बहुत करीब काँप रहा है
पलकें नहीं झपकाएगी दुनिया जापान भरोसे का नाम है
जहाँ जापान है वहाँ हाथ लिख दो
जहाँ जापान है वहाँ हाथ रख दो
जहाँ जापान है वहाँ जापान लिख दो
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जहाँ फ़िलहाल
जापान है
वहाँ भारत हो सकता है पाकिस्तान हो सकता है ईरान हो सकता है अमेरिका हो सकता है रूस चीन दुनिया का कोई भी मुल्क़ हो सकता है और नहीं होना चाहिए लिखना चाहता हूँ प्रार्थना के शिल्प में ही
कि जापान फ़िलहाल बहुत दुख का नाम है
कि जापान आज जैसा है वैसा नहीं होना चाहिए वैसा नहीं होगा जापान कहता है उसे दुनिया का सम्बल भर चाहिए
जापान महाकरुणा का देश है…
21
‘सुना सुना इश्क़ करो’ फ़कीर हुआ तो वारिस शाह की तरह कहता
अभी फ़कत जापान से
जकात नहीं पसीने की आग दो
प्यार दो
22
पाक़दामानी का ख़ामख़ाह ख़याल बरतते हुए दामन सिलवटों के सुपुर्द हुआ और वहीं से उठी चर्ख़ आवाज़
कि उसाँस सा पराया नहीं कोई
नहीं कोई
नहीं कोई
हसीं पाप कोई हुआ चाहिए दुआ चाहिए
महब्बतों की दवा चाहिए
फिर फिर जापान हुआ चाहिए
23
जापान में कम बचा है जापान उस तरह नहीं जैसे लखनऊ में कम बचा है लखनऊ जैसे बनारस में कम बचा है बनारस जैसे भोपाल में कम बचा है भोपाल
यह एक अकेली ख़ुशी का वक़्फा है
24
पहली पीढ़ी को मौत मिलती है
दूसरी को सहनी पड़ती हैं त्रासदियाँ
तब
तीसरी पीढ़ी को रोटी और सम्मान मिलता है
भूला नहीं होगा जापान अपनी कही गयी सूक्ति
में ली गयी साँस…
25
भाषा में क्या आयौ
बोली-बानी सानी-पानी लाग-लंठई करतेव
कनपट्टी पर कट्टा धरतेव गदर-गुंडई करतेव
पुरस्कार के दल्लों औंढ़े सम्पादक का -
चरण चाँपते दारू देते सपनों में तो डरतेव
गैरत गोड़ेव कविता छपवावै की खातिर जै हो
कबिजी
मउगा होइगेव आलोचक के मुख से केवल आपन नाम सुनइकेव
वाह वाह कबिजी क्या कबिता
वाह वाह कबिजी क्या वबिता
खूब अघायौ
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शब्द अच्छे होते हैं न बुरे केवल सार्थक होते हैं या निरर्थक ऐसा विचार उलीचते हुए श्रीमान बुद्धिजीवीजी ने आख़िरी अक्षर चुभलाया और पाया कि उनकी जीभ रात में भक्षे गये किसी शब्द के रेशे से उलझ रही है तब उन्होंने आवश्यक कार्यवाई के अन्दाज़ में ऐसा किया कि बाएँ हाथ की छोटी उँगली के नाख़ून को दाएँ तरफ के रदनक दाँत की मदद से थोड़ा नोचा थोड़ा छोड़ दिया और उसकी ख़ुफ़िया भूमिका तय कर दी जैसे कि तीली और उससे दाँतों के दरम्यान फँसे रेशे को आज़ाद कराने में ऐसे तल्लीनभाव से संघर्षरत हुए जैसे कि देश आज़ाद करा रहे हों और काफी ज़द्दोजहद के बाद अन्तत: सफलता उनके बाएँ हाथ की छोटी उँगली के अधनुचे नाख़ून पर नमूदार हुई जैसे कि इज़्ज़त और राहत के साथ मुझे दिखाते हुए बोले कि यार अक्सर खाया हुआ ही अटक जाता है और तो और जीना ही हराम कर देता है जैसे कि ज्ञान फिर बाएँ हाथ की छोटी उँगली के अधनुचे नाख़ून पर लगे रेशे को अपनी नाक के क़रीब लाये कुछ अजीब सी भंगिमा बनायी जिसमें नाक के सिकुड़ जाने की भी एक क्रिया शामिल थी फिर बाएँ हाथ की छोटी उँगली के अधनुचे नाख़ून पर टिके रेशे को हवा में अपने सिर के बाएँ क़रीब से ऊपर इस तरह उठाया जैसे कि चक्र सुदर्शन या गोवर्धन धारण किये हुए हों
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दूसरा जो जीता न जा सका
इसीलिए हुआ मैं पराजित
- मेरा हारना और उससे हारना
एक ही बात नहीं है
हारा उससे
कि मैं सहमत न था
फिर भी रहता आया
जैसे आकाश का (अ)-तल छोड़
रहते आते तारे
हारा उससे
कि मैं अपनी रूह से मजबूर
क़बूल न सका जड़ता
नदी की तरह
मैं बह चला
हारा उससे
कि अपनों के बहुत सारे दुख
पर फ़िदा ख़ुद ही
हार बैठा सब कुछ
- निरीह हुआ
- मेरा हारना और उससे हारना
एक ही बात नहीं है
जीत नहीं सका एक उसे
- त्याग से
यही मेरी मात है
27
‘हिन्दी साहित्य में प्रशस्ति लेखक का महत्त्व’ या ‘हिन्दी साहित्य में फ्लैप लेखक का योगदान’ जैसे विषय पर जब शोध होगा तो श्रीमान बुद्धिजीवीजी का नाम प्रमुखता से सन्दर्भित होगा ऐसा बुद्धिजीवीजी ने सोचा यह उनका पराक्रम ही है कि जिसके लिए तरसते हैं तमाम साहित्यकार फाहित्यकार वह पुरस्कार बुद्धिजीवीजी ने दो-दो तीन-तीन बार झपटा इस सबके बावजूद बुद्धिजीवीजी में एक बचकानी ईर्ष्या घर कर गयी जिसका मौलिक पाठ अमरीका जिस तरह आतंकवाद के ख़िलाफ़ करता है कुछ उसी तरह हल्के अन्दाज़ में रह रह कर करते हैं कि उन पर मास्टरी की हैवी सेलरी का दाब न दिखे ऐसे विगलित क्षणों में बुद्धिजीवीजी रचना में आँख मूँद समीक्षा लिखने में जुट जाते हैं अफ़सर-दोस्त और दारू महत्त्वपूर्ण रचना की कसौटी हैं उन्हें याद रहता है बाक़ी भीड़ है जिसे लोहिया भी लोक आदि कहते थे बुद्धिजीवीजी जीवन के लिए बुद्धि को इनपुट मानते हैं और विज्ञापन को आउटपुट जिसका कमीशन उनकी साहित्यिक उपलब्धि है इस सन्तोष के साथ सिर झुकाकर चरने में मशगूल हो जाते हैं…
28
अलाने को इनाम फलाने को सम्मान ढिकाने को पुरस्कार मेरे अरे मेरे ही कारण की धौंस और कृतार्थों-धन्यों के दरबार में तुम निहत्थे हो अपनी भाषा की हया का हाथ थामे
वे तुम्हें आमन्त्रित करेंगे और कटघरे में खड़ा कर देंगे बहुत सादगी से पूछेंगे कि तुम्हारी पेन की स्याही का रंग आख़िर नीला क्यों है और दयार्द्र हो तुम्हें लाल स्याही वाली पेन गिफ़्ट करते हुए कहेंगे कि लो इससे लिखो और स्वीकृत भाषा में बेखटके चले आओ
वे तुम्हें सरल करेंगे लम्पट-लतीफे सुनाते हुए दिखाएँगे धन्याओं की फेहरिश्त जिनको कृतार्थ कर उन्होंने भाषा में शोहरत बख़्शी फिर तुम्हारे ऐन सामने सजा देंगे बलवर्धक दवाओं की शीशियाँ और अपनी दशा से तुम्हें शर्मिन्दा करेंगे
साँस रोक प्रतीक्षा करेंगे कि तुम कुछ कहो वे बहुत शान्त स्वर में कहेंगे बोलो बोलो चेतनक्रान्ति यूँ चुप्पी में मत घुटो यहाँ भाषा में तो दिग-दिगन्त तक हमारी ही रंगदारी हमारा ही राज कहो निर्भर हो कहो सान्त्वना की एक आँख दाब तुम्हारे धैर्य का धर्म परखेंगे तुम्हें परास्त करने की प्रतीक्षा में मर-मिटेंगे और अन्त तक एक मुर्दे की तरह बहुत शालीनता से पेश आएँगे और तुम्हें याद दिलाएँगे कि आज तुम्हारे जन्म का दिन है।
29.1
(पिछले पहर पुरखों ने भाषा में एक घोंसला बनाया कुछ वनस्पतियों पर भरोसा किया परिन्दों की तरह सूफ़ी हुए यह चूक आनुवंशिक मुझे उनको हमें - दरअसल जो अपने ही थे - कुछ जम गयी किन्तु कमानें तन गयीं और काल रिस रिस कर बरसता रहा)
दिन देखा है हमने
देखा है दिन
सालिग्राम बिके
लेकिन चुका न ऋण
देखा है दिन…
29.2
(समय धीरे धीरे नसों में दाख़िल होता रहा और रक्त में पहली दफ़ा महसूस हुआ लोहा)
इनकी फ़रियाद है गूँगे की सदाओं की तरह, उनका दरबार है बहरों की सभाओं की
तरह
ज़ख़्म कितने ही दो अब कुछ भी नहीं बोलेंगे, दर्द से सुन्न है अहसास शिलाओं की
तरह
शस्त्र के ज़ख़्म तो भर जाते हैं वर्षों में मगर, शब्द के ज़ख़्म हैं मधुमेह के घावों की
तरह
जाने क्यों लोग यही चाह रहे हैं हमसे, हम भी हो जाएँ ज़माने की हवाओं की तरह
दिल को धोखों ने ही चालाक बनाया वरना, पहले यह शहर भी मासूम था गाँवों की
तरह
29.3
(समर्पण के मुहूर्त पर मन मार हमने भी सौंप दिया अपनी चादरिया का तार तार तनिक सतर्क भी तो रहे क्या ख़ता की!)
समय की आँधियाँ हैं और मैं हूँ, नफ़स की धज्जियाँ हैं और मैं हूँ
मगर जीने की कोशिश पेशतर है, भले पाबन्दियाँ हैं और मैं हूँ
कहाँ लायी मेरी काफ़िर-मिज़ाजी, जिहादी बस्तियाँ हैं और मैं हूँ
समर्पित ख़ूबियाँ भी ख़ामियाँ भी, ये मेरी अर्जियाँ हैं और मैं हूँ
29.4
(वे दिन दीवार में चिन दिये गये जिन्हें हमने अपने रक्त से रँगा)
हलचल मची हुई है उसी के बयान से, जिस आदमी का रिश्ता नहीं है ज़बान से
उनका ही हाथ पाँव दबाते रहे हैं हम, मतलब नहीं है जिनको हमारी थकान से
29.5
(इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई भी देख ली यूँ ही…)
जितने इज़्ज़तदार देश के हैं सब के सब आये हैं, शिरकतफ़र्मा है पूरा का पूरा चम्बल
संसद में
यार तमाशा अक़्सर ऐसा तो होता ही रहता है, हर अगले पल बनते रहते हैं दल में
दल संसद में
सरकस के सब अनुपम करतब तुझको भी तो आते हैं, तू भी अपना करतब दिखला
तू भी अब चल संसद में
29.6
(आप मानो या न मानो, मगर सच है कि हमारे रक्त में पानी धरती और समुद्र के अनुपात में है)
घिन आती है आचमन से
क्योंकि राजनीति
अब ‘पाँडे ताल’ की तरह है
जहाँ नहाते हैं सिर्फ
अन्तिम संस्कार करके लौटे लोग
या घोसियों की भैंसें
या दीर्घशंका से निवृत्त जनों के लोटे
29.7
(विश्व की जो इकाई है - घर- उसकी अपनी विपदाएँ हैं उनका शुमार किस स्वायत्तता का शिकार)
दसियों सालों से पापा को खोने से पहले ही बार बार होश खो रही है माँ
दसियों सालों से आँखों की नदी दिन रात बही है अब रेत निचुड़ रही है
दसियों सालों से इंजेक्शन की शैया पर पड़े हैं पापा भीष्म की तरह और असमर्थ है
अर्जुन कि पिला सके कोई मोक्ष-प्रदाता गंगाजल
दसियों सालों से उस नक्षत्र की अनचाही प्रतीक्षा है सबको जो किश्तवार मौत से
मुक्ति दे
पापा के पसर गये फेफड़ों में भरी हवा निकलकर बन जाए
नव-जीवन-स्वाँस
(आमीन! मगर कहने से क्या
जबकि पुनर्जन्म पर ही भरोसा नहीं मुझे अब तक)
किन्तु अब सब प्रस्तुत करना चाह रहे हैं अनचाहा वक्तव्य -
‘अलविदा!’
यह मध्यम जीवन और स्मृति के ब्लाइंड स्पॉट्स स्वप्न और जेब में एक साथ खलल डालते हैं बार बार… निरुपाय की उसाँस-सा भर जाते हैं
ईश्वर जो नहीं है कहीं
करता ही रहता है अट्टहास…
29.8
(रात और दिन ने बाँट रखा है समय इन्हीं के दरम्यान हवा बहती है मौसम बदलते हैं नैसर्गिक भ्रम होता तो उतना ग़म न होता)
पेड़ पर पतझरों के दल आये, तब कहीं उस पे फूल फल आये
रात का अन्धकार था बेहद, जाने हम कितनी दूर चल आये
उसको ओहदा मिला तो नगरी में, कितने रिश्ते नये निकल आये
वे सफ़ीने भँवर में उलझे हैं, जो हवाओं के साथ चल आये
भावना आस्था वफ़ादारी - सारे फूलों को हम कुचल आये
29.9
(बीत चुके बहुत में और बहुत कुछ बचा है दुरभिसन्धियों में ही यात्रा का रोमांच भुगतना है)
जब से वह नामवर हो गया है, ऐब उसका हुनर हो गया है
किस सियासत से पहलू बदलकर, राहज़न राहबर हो गया है
एक ही ईंट निकली है लेकिन, यूँ लगे घर खँडर हो गया है
29.10
(कोहरे में आज का अख़बार आता है और आज का लडक़ा आता है कल वह जवान होकर पिघलेगा)
एक माचिस की तीली जली है, अब अँधेरों के घर खलबली है
सौ बवालों में भी शायरी है, हिंस्र पशुओं में ज्यों ‘मोगली’ है
इस हवा के असर में न आये, अब भी बच्चों की दुनिया भली है
29.11
(अतीत की पतंग नये हाथों में बहुत रंगीन होकर धडक़ती उड़ रही है)
सडक़ पर है मगर ईमान का तेवर सुरक्षित है, अभी गुदड़ी में उसका आख़िरी ज़ेवर सुरक्षित है
जहाँ पर कैकयी है और अनगिन मन्थराएँ हैं, वहाँ पर राम के वनवास का भी डर सुरक्षित है
सृजन की रागिनी अब भी फ़िज़ाओं में महकती है, तिरोहित हो गये हैं शब्द लेकिन स्वर सुरक्षित है
29.12
(सचाई कौर में करकती है रह रह कुछ रोमांटिक कल्पनाओं के एवज हाँफना पड़ता है)
दुनिया की कचकच तिस पर पत्नी का नखरा
पाँव पसिनियाया स्लेट का ख़ैबर दर्रा
रस्ते की सुलझन पर दिखता है घर अपना
लकदक एक हक़ीकत फिर भी सपना
पूरब पच्छिम उत्तर दक्खिन
सभी दिशा से आती है पिन
बिंधा हुआ इच्छा का भीष्म
समय तीव्रतम साँसें धीम
जेबी शोर और सन्नाटा
इसने हूँसा उसने डाँटा
हाथ हमारा नीमहकीम
लाएगा ही सुख की ‘थीम’
मन का आँसू गुटुक गुटुक
ढूँढ़ रहा जीवन का तुक…
29.13
(गुत्थियाँ हरेक की कई बार मौलिक होती हैं इतनी कि व्यक्तिगत लगती हैं लेकिन यह भूलना एक नयी गुत्थी को जन्म देना है; फिर जनाब, उसकी पुरानी चूकों के बाबत उसे यूँ क़ाफ़िर ठहराना, कैसा फ़ैसला! आप जानें या आपका ख़ुदा।)
जीवन के कई अर्थवान क्षण
विस्तार चाहते रहे
जबकि
छोटी न हो सकी उसाँस
खुलती फैलती रही
एक फाँस
आँतों की सुलझना चाहती रही
और अर्थ
जीवन से
देह-सा जुडऩा चाहता रहा
अतृप्ति का एक शोकगीत तक
गाया न जा सका कि रही
जीवन में ऐसी मृत्यु की उपस्थिति
भ्रम की दिशाएँ तो सभी पुकारती रहीं चकर-मकर
जबकि भागना चाहना तक उनकी ओर
कभी रास नहीं आया
सँभाला
अन्तर के रंगों
और शब्दों के गुरुत्व
ने ही थाम लिया मुझे बारम्बार और मुक्त किया…
(उपसंहार लिखते हुए कतराता हूँ ‘संहार’ की बू आती है)