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...तखन वसन्तक की अभिनन्दन? / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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टूटल सब मर्यादा-बन्धन
तखन बसन्तक की अभिनन्दन?
एक समय छल जहिया
राजा मानल जाथि सदेह देवता
आ राजा देवते जकाँ
करितो छलाह जनाताकेर पालन,
अपन प्रजाक व्यथाकेँ अपने व्यथा मानि
पुनि करथि निवारण।
तेँ तहिया यदि ऋतु बसन्तकेँ
भेटि गेलनि ऋतुराजक आसन
तेँ उचिते छल।
किन्तु आब सब किछु अछि बदलल।
राजतन्त्र रहि गेल कहाँ जे
आबहु ई ऋतुराज कहाबथि?
आइ व्यवस्था उनटल-पनटल।
राजतन्त्रमे जे दुर्गुण छल
से कतगुन भेलोपर सम्प्रति
लोकतन्त्र अछि नाम धरौने।
आजुक लोक समाजक जकरा
मानि रहल अछि युग परिवर्त्तन।
जकरा वर्त्तन परिलगलै से फानि रहल अछि,
जकर लुटयलै वर्त्तन से सब कानि रहल अछि,
जनसाधारण उनट-पनटकेँ
युग परिवर्त्तन मानि रहल अछि।
परिवर्तन सृष्टिक स्वभाव थिक,
बिनु परिवर्तन चलि न सकय ई,
किन्तु एक परिवर्त्तन जे नैसर्गिक होइछ
कतहु ताहिमे हो न व्यतिक्रम।
ग्रीष्म तपाबय जखन धराकेँ
वाष्पीभूत भेल जलकण सँ साजि मेघदल
उतरय पावस, करय धराकेँ सार्द्र
शरद पुनि वसुन्धरा पद पर बैसाबय।
दासर परिवर्त्तन हो कृत्रिम,
कृत्रिम परिवर्त्तन सब किछुकेँ
घोँकि-घाँकि कय छोड़ि दैत अछि,
बढ़ल चरण शिखरक दिस
तकरा घीचि गर्त्त दिस मोड़ि दैत अछि,
कृत्रिम परिवर्त्तन समाजकेँ
मूड़ी पकड़ि ममोड़ि दैत अछि।
आइ मनुश्य प्रहार करय सोझे निसर्ग पर
सकल समाजक एक वर्ग पुनि अपर वर्ग पर।
लड़ि-लड़ि प्रकृतिक संग मनुज
दय रहल ध्वंसकेँ आइ निमन्त्रण,
जल-थल-गगन-पवन धरि-सबतरि
क्रमशः बढ़ले जाय प्रदूषण।
सौमनस्य जे छल समाजमे
वैमनस्य दिस ससरि रहल अछि
समताकेर नाम पर जग भरि
घोर विषमता पसरि रहल अछि।
कोकिल रहय वसन्तक शोभा
से रन-वन घुमि नोर बहाबय,
काक किन्तु संगीत सभामे
आजुक स्वर सम्राट कहाबय।
संकरबीज आब उत्पादनमे
न ऋतुक परवाहि करय किछु
हमरा फुलबाड़ीमे शरदक तीरा फूल
फुलाय रहल अछि,
फागुन थिक तैया बजारमे
कटहर खूब बिकाय रहल अछि।
संकर अछि संगीत, कला सब,
तखन किएक न हो ऋतु संकर?
संकर लोक, सभ्यता संकर
संकर लोक, संस्कार स्वदेशक,
भाषा संकर तेँ साहित्यो संकर
व्यर्थ दोष परिवेशक।
आब वसन्तक गुण जे गाओत
कवि नहि चारण पदवी पाओत।
बाल्मीकि की, कालिदास की,
विद्यापति-गोविन्द दास की
आजुक संकर बनल कसौटी पर
कसलासँ ठहरि सकै छथि?
साहित्यक सिंहासन बैसल
महाधुरन्धर सैह बकै छथि?
वातावरण भेल जाइत हो डेग-डेगपर जतय भयंकर
संकरभय सब वस्तु ताहिमे हमर आश केवल शिवशंकर।
जे वसन्तकेँ पाबि मुदित मन शैलसुतासँ परिणय कयलनि,
त्यागि समाधि, सकल सुखसाधक
फेर गृहस्थक आश्रम धयलनि।
तेँ हे हमर वसन्त!
आब राजा सबहिक छनि प्रीवीपर्शोबन्द।
तदपि अपन गुणगाान सुनक अभिलाषा हो
तँ ठोकि-ठठा कय पकडू पाटी
जे कोनो हो मनपसन्द
जद, बसपा, सपा, माकपा, सजपा,
जपा, भाजपा तथा भाकपा
वा बुढ़िया कांग्रेसे भावय, जे मन मानय,
नाम अहींक उचारि जाहिठाँ
गदहा नाचय, घोड़ा फानय,
वनमुर्गी, बुढ़बा बगुला सब
एक अहींक सुकीर्ति बखानय।
जनिक नाम पर कविता रानी
करथि सदा करूणामय क्रन्दन
अहाँ करू तनिकर पद-वन्दन
ओ अहाँक करता अभिनन्दन।
टुटल सब मर्यादा बन्धन, तखन बसन्तक की अभिनन्दन?