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...पुर्साने-हाल दे ! / सुरेश स्वप्निल
Kavita Kosh से
आसाँ है तो क्यूँ कर न ज़ेह्न से निकाल दे
मुश्किल है तो ला दे, मुझे अपना सवाल दे
लेता है तो असबाबे-ग़ज़लगोई छीन ले
देता है तो उस्ताद मुझे बा-कमाल दे
आओ तो इस तरह कि किसी को ख़बर न हो
जाओ तो यूँ कि वक़्त अज़ल तक मिसाल दे
राहे-बहिश्त में मिरी साँसें उखड़ गईं
हूरें न दे, न दे कोई पुर्साने-हाल दे
तेग़ें तड़प रही हैं तिरी दीद के लिए
ना'र: -ए-इंक़िलाब फ़लक तक उछाल दे
सर दाँव पर लगा है शिकस्ता अवाम का
मुफ़्लिस को शाहे-वक़्त से ज़्यादा मजाल दे
नादार को निवाल: मयस्सर न हो जहाँ
उस ख़ल्क़ो-कायनात से बेहतर ख़्याल दे !
(मशहूर इंक़िलाबी शायर जनाब मोहम्मद अली 'ताज भोपाली' साहब मरहूम की याद में, उन्हीं की ज़मीन पर)