131-140 मुक्तक / प्राण शर्मा
१३१
हम मदमस्ती के पाले हैं
मधुशाला के उजियाले हैं
हम से सम्मान सुरा का है
हमसे ही शोभित प्याले हैं
१३२
आता – जाता हूँ मधुशाला
पीता जाता हूँ जी भर कर हाला
सब कहने से क्या घबराना
मतवाला हूँ मैं मतवाला
१३३
प्याले पर प्याला पी डाले
घट – घट की हाला पी डाले
पीने वाला मदमस्ती में
सारी मधुशाला पी डाले
१३४
हँसता, गाता, मुस्काता है
अपने मन को महकाता है
जो आता है मधुशाला में
आनंदित होकर जाता है
१३५
प्याले पर प्याला चलने दे
मस्ती को मन में पलने दे
जब बैठे ही हैं पीने को
तो रात सुरा में ढलने दे
१३६
मेरा और अपना प्याला भर
मदिरा से महफ़िल करदे तर
मस्ती की घड़ियों में प्यारे
मन की बेचैनई से ना डर
१३७
माना, सुख के दीन बीते हैं
मान सुविधा में हम रीते हैं
लेकिन मदिरा के बलबूते
हम बेफ़िक्री में जीते हैं
१३८
आये हैं हम पीने वाले
मदिरा के प्यासे मतवाले
साक़ी हम यह क्या सुनते हैं
खाली बोतल खाली प्याले
१३९
मन में सद्भाव जगाती है
औ’ दर्द – दया उपजाती है
मदिरा हर प्राणी को अक्सर
संवेदनशील बनाती है।
१४०
ये भोली-भाली है हाला
कैसी मतवाली है हाला
चखने में कड़वी है लेकिन
पर चीज़ निराली है हाला