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1857 ई. के शहीदों की याद में / नज़ीर बनारसी

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बैठी है दिलों पे धाक अब भी, तुम उठ गए, उठ गए जनाज़ा
सौ साल हुए मगर शहीदों, अब तक है तुम्हारा खून ताजा

गरजे हो अगर वतन के शेरो, मुँह तोप का बन्द हो गया है
फाँसी पे अगर लटक गए हो, सर और बुलंद हो गया है

मौत आई गले जो तुम से मिलने, तुमने उसे देश प्यार समझा
जब आके अजल ने थपकियाँ दी, माता का उसे दुलार समझा

जब गोलियाँ खा के गिर पड़े हो, भारत का क़दम सँभल गया है
करवट जो शहीद हो के बदली, इतिहास का रूख बदल गया है

हर मोड़ पे था अजल का पहरा, हर गाम पे ज़िन्दगी खड़ी थी
मरते थे वतन पे मरने वाले, मरने ही में सबकी ज़िन्दगी थाी

तम कत्ल हुए तो धार खूँ की, धरती को सँवारने लगी है
मुँह बन्द हुआ है जब तुम्हारा, तारीख़ पुकारने लगी है

मैदान मै जब उतर पड़े हो, तलवार पे चढ़ गया है पानी
नाना की उठी है जब भी तलवार, अंग्रेजों की मर गई है नानी

शब्दार्थ
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