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191-200 मुक्तक / प्राण शर्मा

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          १९१
साकिया, मुझ को पिला दे तू सुरा
मधु कलश मेरी नज़र से मत चुरा
बिन पिए दर से नहीं मैं
तू ढिठाई को मेरी कह ले बुरा
          १९२
तू पिलादे आज इस मस्ताने को
ला, थमा दे जाम इस दीवाने को
जिस घड़ी तूने पिलानी छोड़ दी
आग लग जायेगी इस मयखाने को
          १९३
ठण्ड लगने का न कोई डर रहे
तन- बदन में शक्ति सी अक्सर रहे
सोने से पहले मैं पीता हूँ शराब
ताकि ठंडी में गरम बिस्तर रहे
         १९४
साकिया, मुझसे बता क्या रोष है
जो पिलाता तू नहीं क्या दोष है
एक-दो बूँदों की खातिर साकिया
देख मिटता जा रहा संतोष है
        १९५
आज मदिरा को मचलता जोश है
जोश में बिल्कुल नहीं अब होश है
इस सुरा के भक्त से ऐ साकिया
क्यों छुपा रखा सुरा का कोष है
       १९६
नज़रों से अपनी गिराते हैं नहीं
एक पल में भूल जाते हैं नहीं
रोज़ पीने वाले से ऐ साकिया
जाम मदिरा का छुपाते हैं नहीं
        १९७
झूठ बोलेगा नहीं उसका सरूर
सत्य बोलेगा सदा उसका गरूर
सत्यवादी और कोई हो न हो
सत्यवादी हर मधुप होगा ज़रूर
         १९८
देखते ही देखते रह जाओगे
भूल पर अपनी बहुत पछताओगे
चीर कर मेरे ह्रदय को देख लो
खून से ज्यादा सुरा को पाओगे
         १९९
फूलों का हर घर दिखाई देता है
रूप का हर मंज़र दिखाई देता है
मस्ती के आलम में मुझ को साकिया
हर बशर सुंदर दिखाई देता है
           २००
झूमने से तुम मेरे जलने लगे
और पीने से मेरे खलने लगे
पास जितना आया मैं उपदेशको
दूर हो कर उतना तुम चलने लगे