2.प्रकृति–सहचरी / सुधा गुप्ता
1
कौतुकमयी 
प्रकृति सहचरी 
सरि उल्लास–भरी 
तट पे जा 
गोते लगा, फिर 
भर ला गगरी। 
2 
दूब–बिछौने 
धूप का तकिया ले 
सोई जो दोपहरी 
वक्त ने छला– 
जा चुका था सूरज 
आँख ही तब खुली ! 
3
शोख़  अदा से 
मचलती शाम ने 
थामा रात का हाथ 
नाचती रहीं 
दोनों होश खोकर 
आके झाँका प्रभात। 
4
मेघ न आए 
आषाढ़ बीत गयाय
सावन रीत गया 
विरह–व्यथा 
यक्ष किसे सुनाए 
कैसे भेजे सन्देसा? 
5
विरही यक्ष 
बैठा विरहाकुल 
कुटज–पुष्प लिये 
प्रतीक्षारत 
मेघदूत आ जाए 
तो सन्देस पठाए ! 
6
श्यामपट्ट पे 
खडि़या से निकाले 
ढेर सारे सवाल 
थक के चाँद 
माँ की गोद जा सोया 
अंक दमक रहे। 
7 
बड़े उन्मन 
सदाबहार वन 
रहते खड़े मौन 
पतझर, न 
वसन्त की दस्तक 
रोमांच भरे कौन ? 
8
बड़े सवेरे 
कोकिल कूक उठा 
चहकी अमराई 
चुपके  से आ 
सावन की पुफहार 
भिगो, चलती बनी ! 
9
मेघों ने मारी 
हँस के  पिचकारी 
भीगी धरती सारी 
झूमे किसान 
खेतों में उग आई 
वर्षा की किलकारी। 
10
मेघों से घिरी 
सूरज की बिन्दिया 
चाँद जैसी लगती 
‘दुर्दिन’ आए 
जेठ की प्रचण्डता 
धूलि में लोट रही ! 
11 
वर्षा की साँझ 
जुगनू टिमकते 
बड़े भले लगते 
दो मणिदीप 
तिमिर–भरा मन 
आलोकित करते। 
12
साँझ फूलती : 
लाल–नारंगी मेघों 
भर उठा आकाश 
कहे थी नानी– 
‘इन्दर की परियाँ 
फिरें झूला झूलती।’ 
13
ऊँचे से कूदा 
शरारती झरना 
सीखा नहीं रुकना, 
गिरा, सँभला 
फिर–फिर फिसला 
पर बह निकला ! 
14 
भादों की धूप 
दोपहरिया–फूल 
बातों में मशगूल 
रंग–बिरंगे 
गमलों से उझके  
कौतुक–भरे बच्चे ! 
15 
कहे श्रीगन्धा 
जब था हरा–भरा 
रूठी ही रही प्रिया 
जीवन खोया 
काष्ठवत् होके , रोया 
सुगनि ने आ वरा ! 
16 
बॉटल ब्रश 
बे मौसम के  फूल 
छूने लगे आकाश 
वर्षा से झरे 
सूनी बाँहें फैलाए 
खड़ा रहा वातास। 
17 
उषा अप्सरि 
अभिनव सम्भार
कर रही धृंगार 
उतावली में 
छूटा हाथ सिन्धौरा 
हो गई पूरी लाल। 
18 
पौ फटते ही 
सज गइ डालियाँ 
आ बैठे कीर्तनिया 
मीठे सुरों में 
प्रभु–महिमा गान 
कराते सुाध–पान। 
19 
चटख नीली 
ओढ़नी सहेजे थी 
नई नवेली भोर 
आ टकराया 
अनाड़ी रंगसाज़ 
बिखरा बैठा रंग। 
20 
आकाश बिछी 
रंगीन शतरंजी 
सजे हैं फ़र्जी–प्यादे 
मेघ चलते 
तिरछी–सीधी चाल 
हाथी–घोड़े–पैदल। 
21 
होते ही भोर 
ठनी है घनघोर 
बादल–सूरज में 
दोनों डटे हैं– 
एक लगाता झड़ी 
दूजे की धूप–छड़ी। 
22 
ज़ोर की वर्षा 
अचानक थम गई 
खिल पड़ी है धूप 
रोते–रोते ही 
हँस उठी बालिका 
औचक माँ को देख। 
23 
चौथे पहर 
मेघ गड़गड़ाए 
सौदामिनी दमकी 
बावली रात 
हाथ में ले मशाल 
खोजती फिरे प्रात। 
24 
फाख़्ता थी शाम 
भूरी–सलेटी पाँखें 
कुछ बोलती आँखें 
मुँडेर बैठी 
कुछ देर टहली 
ख़ामोशी से उड़ ली ! 
25 
बिछी हुई थी 
आकाश के  पलंग 
सूनी नीली चादर 
उषा ने काढ़ीं 
सुनहरी बूटियाँ 
किरन–सुई ले के । 
26 
बिछा के  बैठी 
आकाश के  आँगन 
बादलों की चटाई 
भावुक उषा 
फ़ुरसत में बैठी 
कविता लिख रही ! 
27 
पेड़ झूमते 
झुला रही है झूला 
बौछारों भरी हवा 
मतवाले हो 
मधुशाला से लौटे 
पियक्कड़, यूँ लगा। 
28 
अमा–निशा ने 
चाँद चुराया, किया 
सात तालों में बन्द 
चकमा दे के  
बाहर आया, हँसा 
आकाश का आनन्द ! 
29 
मेघ क्वार के  
बिखर पड़े नभ 
मलमल–टुकड़े 
हवा दर्जिन 
सिल कर बनाती 
शुभ्र श्वेत चादर। 
30 
जोगी का भेस 
आकाश ओढ़े बैठा 
चिन्दी–भरी कथरी 
किसने टाँके  
भूरे–सफ़ेद–काले 
कई रंग पैबन्द ? 
31 
आश्विन आए 
लाए हैं उपहार 
खिले हरसिंगार 
श्वेत–केसरी 
झर–झर झरते 
कितने सुकुमार ! 
32 
आश्विन आए 
आकाश का धुनिया 
हो गया अति व्यस्त 
लगाता जाता 
धुनी रुई का ढेर 
उड़े श्वेत बादल ! 
33 
आश्विन आए 
सूरज की वापिसी 
लम्बी छुट्टी के  बाद 
खुश हैं मेघ : 
जायेंगे अब घर 
सता रही थी याद। 
34 
दूल्हा आकाश 
मुख पे सजा बैठा 
मेघों का अंगराग 
आई ख़ बर : 
आती नवोढ़ा प्रिया 
छलका अनुराग। 
35 
तट पे बैठी 
सन्या, मौन, सुनती 
लहरों का संगीत 
आने–जाने की 
होड़ मची रहती 
ख़त्म न होता गीत। 
36
ऊषा जो जागी 
सूरज की किरन 
गुदगुदा के  भागी 
गा उठे पंछी 
किसने किया जादू 
समझा नहीं कोई ! 
37 
सर्दी की धूप 
लेकर लपेट में 
ग़ाफ़िल कर गई 
आई सहेली 
गुनगुनी बातों में 
शामिल कर गई। 
38
ज़र्द पत्तों से 
पेड़ों ने नाता तोड़ा 
शाखों ने मोह छोड़ा 
झरे, आ गिरे 
ममता–भरी गोद 
धरती माँ ने दे दी। 
39 
कली जो खिली 
ले कर अँगड़ाई 
बगि़या इठलाई 
फैला सुवास 
भौंरे बदहवास 
मँडरा रहे पास। 
40 
मुग्धा उषा ने 
कंत–पंथ सँवारा 
पलकों से बुहारा 
धीर–ललित 
सूरज आँख बचा 
दिवा के  घर चला। 
41 
चिन्तित रात 
सर्दी न खा जाएँ ये 
शैतान बच्चे तारे
ऊँचे पलँग 
कोहरे का कम्बल 
ओढ़ा के  बैठा दिया। 
42 
हेमन्त आया 
धूप हुई चन्दन 
सब माथे लगाएँ 
जड़–चेतन 
सूरज ने रिझाया 
शीश पर बैठाएँ। 
43 
अलसा गया 
दिन का मज़दूर 
धूप की ताड़ी पी के  
औचक ही आ 
अँधेरा छीन भागा 
सारी कमाई ले के । 
44 
तापसी भोर 
उदास, एकाकिनी 
राम–राम जपती 
मुँह–अँधेरे 
धुन–कथरी ओढ़ 
गंगा नहाने चली। 
45
वधूटी संझा 
सूरज को यूँ भायी 
जल्दी घर खिसका 
बिलम रहा 
चाशनी–डूबी बातों 
अबेर से निकला। 
46 
तुषार–कन्या 
सूरज–घर आके  
ऐसा दिया धरना 
बन्द किया है 
उसका निकलना 
माँगे हक़ अपना। 
47 
शीत से हारा 
सूरज है बेचारा 
कैसे होगा हाजि़र ? 
खाई है सर्दी 
जाने कहाँ खो बैठा 
गर्म धूप की वर्दी। 
48 
आई है भोर 
थर–थर काँपती 
भीगी साड़ी लिपटी 
जो मिल जाती 
थोड़ी–सी गर्म चाय 
तो राहत मिलती ! 
49 
ओस नहाई 
सुबह आ धमकी 
पूजा–पाठ करने 
द्वार खड़के  
मंदिर थे उनींदे 
कैसे भला खुलते ! 
50 
सूर्य जो उगे 
नभ में डग भरे 
सब को भला लगे 
कोई न पूछे 
सब गँवा के  चले 
घर को दिन–ढले। 
51 
झरे हैं पात 
शिशिर का आघात 
काँपे पेड़ों के  गात 
सृष्टि–सुन्दरी 
गुप–चुप हँसती– 
आएँगे नवजात। 
52 
सिकता–राशि 
बालक खेल रहा 
घरौंदे बनाता है, 
जो रूप देता 
कर लेती मंषूर 
ज़रा नहीं गुरूर। 
53 
फूल जो खिले 
नींबू के  पेड़ पर 
घर महक उठा 
अजाना पंछी 
बैठा पल दो पल 
और चहक उठा। 
54
ॠतु–शृंगार : 
सुमन सुशोभित 
दर्शक भी मोहित 
बाग़बाँ कहे– 
‘हाड़’ की खाद डाली 
तब कहीं ये फले !
55 
मौन हो सही 
रात भर कलह 
उदास थी सुबह 
किसी ने आके  
भाल, बिन्दी सजा दी 
हौले–से मुस्कुरा दी। 
56 
चूकता नहीं 
फिर–फिर आ जाता 
कण–कण छा जाता 
वसन्त–जादू 
मरु–धरा खिलाती 
कीकर, पीले फूल। 
57 
यह क्या हुआ 
गिरवी धूप–हवा 
हावी हुआ अँधेरा 
गगनचुम्बी 
अट्टालिकाएँ उठीं
की प्रकृति से दग़ा ! 
58 
हार क्यों माने ? 
सज गया है मेला 
रंगारंग फूलों का
मत्त बनाती 
भौरों की गुन–गुन 
पंछी की रुन–झुन। 
59 
मीठे तराने 
छेड़े बुलबुल ने 
‘दाद’ दी कोयल ने 
अंजुमन में 
सारिका टेर उठी 
अपनी ही धुन में ! 
60 
फुलैरा–दूज 
फूलों की डलिया ले 
जब द्वार आ खड़ी, 
अगवानी में 
सब कुछ भुलाके  
धरा भी हँस पड़ी। 
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