201-214 मुक्तक / प्राण शर्मा
२०१
जाहिदों की इतनी भी संगत न कर
ना-नहीं की इतनी भी हुज्जत न कर
एक दिन शायद तुझे पीनी पड़े
दोस्त,मय से इतनी भी नफ़रत न कर
२०२
तन-बदन सारा नशे में चूर है
झूम जाने को ह्रदय मजबूर है
आज इतनी पी गया हूँ साथियो
होश में आना बहुत ही दूर है
२०३
याद करते रहे दिन रहे बीते हुए
लड़खड़ाते थे कभी रीते हुए
क्या ज़माने में हुआ किसको ख़बर
रात सारी कट गयी पीते हुए
२०४
मेरा नाता है सुरा से, जाम से
मेरा नाता है सुरा के धाम से
हर दिवस साक़ी पिलाया कर सुरा
ताकि ये जीवन कटे आराम से
२०५
प्रीत तन-मन में जगाती है सुरा
द्वेष का पर्दा हटाती है सुरा
जाहिदों, नफ़रत से मत परखो इसे
आदमी के काम आती है सुरा
२०६
सूखे कूएँ की तरह है रीते नहीं
शोषकों की ज़िंदगी जीते नहीं
जिनको पीने को मिले हर दिन सुरा
दूसरों का खून वे पीते नहीं
२०७
मदभरा वातावरण सारा हुआ
सुरमयी बहने लगी बनकर हवा
मस्ती का साम्राज्य सब पर छा गया
दौर पीने वालों में ज्यों ही चला
२०८
बिन पिए ही साथियो मधुपान तुम
चल पड़े हो कितने हो अनजान तुम
बैठ कर आराम से पीते शराब
और कुछ साक़ी का करते मान तुम
२०९
दिन में ही तारे दिखा दें रिंद को
और कठपुतली बना दें रिंद को
जाहिदों का बस चले तो पल में ही
उँगलियों पर वे नाचा दें रिंद को
२१०
मस्तियाँ दिल में जगाने को चले
ज़िंदगी अपनी बनाने को चले
शैख़ जी, तुम हाथ मलते ही रहो
रिंद सब पीने- पिलाने को चले
२११
मस्त हर इक पीने वाला ही रहे
जाहिदों के मुँह पे ताला ही रहे
ध्यान रखना दोस्तो इस बात का
नित सुरा का बोलबाला ही रहे
२१२
फ़र्ज़ कोई त्यागना सीखा नहीं
घर को अपने दागना सीखा नहीं
माना, मैं प्रेमी हूँ मदिरा का मगर
ज़िंदगी से भागना सीखा नहीं
२१३
ऐ सुरा तुझको अभी मैं शाद कर दूँ
बंद बोतल से तुझे आज़ाद कर दूँ
तेरे रहने की जगह है दिल में मेरे
आ, तुझे इस घर में मैं आबाद कर दूँ
२१४
जेब खाली है मगर चिंतित नहीं हूँ
अपनी निर्धनता से मैं खंडित नहीं हूँ
यह तो साक़ी की दया है मीत मेरे
मैं सुरा से आज तक वंचित नहीं हूँ