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26 / हरीश भादानी
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बूढ़े सूरज की सहचरी
नवेली संध्या ने जाये
कुछ अवैध सपने !
ये सपने
ओट-ओट में पले,
चाँदनी पी-पीकर हो गये सयाने
और एक दिन
अँधियारे की नज़र पड़ गई
नाम-दिशायें पूछी-
ये डर गये विचारे
सतवंती संध्या मां का
नाम लिये चीखे-चिल्लाये !
आधी रात
सन्नाटे ने डसा
और सब कच्ची मौत मर गये;
एक कुलीना मां की
ये लावारिस लाशें
दुर्गन्धायें नहीं हमारी सांसें
मनकी धरती
रहें न घेरे,
अपनों और परायों की खातिर
जी रही हमारी
यायाघर आशाओं, आओ !
इन सपनों को
पूरब की वेदी पर रखदें,
आग लगाएँ
धुँआ हटायें
समिधायें देते हो जायें
और धूप का
गंगाजल छींटें-
आंगन, गली,
सड़क चौराहों !