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31/ हरीश भादानी

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मत छुपो कि-
धूप तीखी है, कि-
पांव जलते हैं, कि-
टोकने को शूल चुगते हैं, कि-
खून रिसता है;
मत डरो, कि-
आंधियां हैं तेज,
धुप अंधेरा है
आकाश की छत पर
धरा के आंगने;
मत सुनो, कि-
दूर से डूबी हुई आवाज़ आती है
दिशायें फेर लेने की, कि-
ओछे मोड़ लेने की;
ओट में दुबके हुओं को उत्तर भेज दो, कि-
कच्ची-मौसमी दीवार के
उस पार
जन्मने अकुला रही है
एक अरूणा-ज्योति-
जीवन की नई सम्भावना-
बस, हमारे पहुँचने भर की प्रतीक्षा है !