37 / हरीश भादानी
यह पठारी मन-
जो ऊपर से
बहुत ही खुरदरा
खामोश लगता है,
यह पठारी मन-
जो भार ढोए जा रहा है
जीवन की अनगढ़ व्यवस्था का
यह पठारी मन
जो मौसम के हाथों
खिचती खरोंचें देख गूंगा हो रहा है,
टीस की हुचकी दबाए चल रहा है,
एक बिन्दु तक पहुँचने के लिए-
यह पठारी मन
जिसकी अनापी पर्त के नीचे
गर्म साँसें
कसमसाए जा रही हैं,
और इन
गर्म साँसों के धुँए के और नीचे
धैर्य्य की चट्टान में
दरारें आ रही हैं
और इस
चट्टान के कुछ और नीचे
सुर्ख लावा
बुद-बुदाए जा रहा है;
ओ, कुब्जा-सभ्यता के पेशवाओं !
प्रवक्ताओं, सुनो
कि तुम सीमान्त बिन्दु पर खड़े हो,
सम्हलो !
अनागत का अनामीक्षण
भूड़ोल लेकर आ रहा है
मृत्यु के संकेत को समझो,
ओ, दागी व्यवस्था के संयोजको !
यह पठारी मन
जो ऊपर से
बहुत ही खुरदरा
खामोश लगता है !