भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
3 / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
सामने
आकांक्षा की झील की
हिलकती पर्त
भूरी दूरियों के थूथनों पर ढरकी टिकी हैं
और मेरी
सव्य साची-लक्ष-गन्धें
परसने को
सघी ही सघी जा रही हैं
और मेरी
आस्था की रास
पंथ-शोधी-दृष्टियों के सारथी के हाथ
बस, अभी क्षण बाद
मेरी यात्राओं का साक्षी
यह संजयी-सूरज
दिशाओं में कुम-कुम उड़ा कर सूचना देगा-
आकांक्षा में
गन्धों के विलय की !