41 / हरीश भादानी
सांस के बाज़ार में
उपलब्धियाँ जितनी मिलीं
नंगी मिलीं,
लाज तो आई बहुत
कुछ हिचकिचाहट भी हुई लेकिन-
इस आदमीनुमा अस्तित्व के लिये
उन्हें स्वीकारना ज़रूरी था,
लिया ढोया
उन्हें ढांपा बहानों के कमज़ोर पर्दाे में;
उपलब्धियाँ-
जो भविष्य की भूमिका बनाने के लिये ही
दी गई हैं,
सब की सब कुरूपा हैं,
प्रतिमूर्तियाँ हैं ये भुभुक्षा की
जलोदर की-पिपासा की
और मेरे सामने वाले
बड़े बाज़ार के शौकीन व्यापारी
सभी खुश हैं,
ये अपने गोरे-चिट्टे मुँह पर
अनिच्छा की शिकन डाले
उपेक्षाई-नज़र से झाँकते हैं-
मेरी जर्जरी दरारों में कि-
मेरे घर
लड़ाई है, तमाशा है नम्रताओं का !
इन्हें छिपाने के लिये
बहुत मोड़ा-मरोड़ा हैं मैंने स्वयं को
खामोश रहने के लिये
इनकी बहुत मनुहार करता हूँ
मगर नहीं मनती, नहीं चुपती;
दे दिये
गिन-गिन कर सभी अरमान
चुकते कर दिये आँसू
इनकी भूख की लपटें बुझाने में,
पर इनकी भूख,
इनकी प्यास वैसी की वैसी है,
मुझे डर है कि-
मेरी आस्थाएँ
इनकी हरकतों से ऊब कर
इनकी हत्या के लिये कहीं विद्रोह न कर दें-
ओ, मेरे सरीखे दोस्त !
रूख किस तरफ बदले हवाओं का-
इसकी गवाह देना !