45 / हरीश भादानी
हमारे गांव
सपने रोज बनते हैं
हर भोर बनते हैं,
हर सांझ बनते हैं,
रंग सपनों का
सरसों की फसल से कम नहीं होता,
रूप सपनों का
मधुमास से कुछ कम नहीं होता,
सपने हमारे
खोखले आकाश में
जन्मा नहीं करते, तैरा नहीं करते,
ये घर की लाज के हाथों
गूँथे हुए सपने
अंगीठी के अंगारों पर निखरते हैं
जिन्हें हमसे अधिक
हमारी भूलों के लिज-लिज नमूने
बेहद प्यार करते हैं,
हमारी खोजी कल्पनाओं को
सपने बनाने का सामान
जब मिलता नहीं
तब ये नमूने
यूँ बिलबिलाते हैं कि-
सावन की घटाओं की गर्जन
हल्की लगा करती,
ये ऐसे चीखते हैं कि-
बिजलियों की कौंध
घुटती सी लगा करती;
और अपने दूध से ही
कतराकर बैठी
घर की अहिल्याई हुई यह लाज !
जिसकी आँखों से
पीड़ा ऐसे पिघलती है कि-
बरखा की रिमझिम फीकी लगा करती,
सपने हमारे-
चाँद जैसे ही दागे हुए हैं गोल-गोल
जिनका मोतियों से भी
अधिक है गोल,
जिन्हें हम
दूज-तीज-चौथ का चन्दा
बना कर बाँटते हैं
और जिनसे
भूख की दरार पटती है
ये सपने हैं-
जिन्हें हम रोटी ही कह कर पुकारते हैं !