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49/ हरीश भादानी

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ओ हमारे हम-उमर-से दर्द !
दूध सांसों का
पिलाया इसलिये नहीं कि-
तुम कछार गोदते रहो, कि-
गुमसुम गंध छू जाये तुम्हें
तुम बौराये फिरो,
कबतक तुम्हारी टोह लें ?
बांधे रहें कैसे तुम्हें ?
अब तुम भी तो सयाने हो-
सुनो-समझो !
अभी हम
जिन्दगी के जिस मुहाने पर खड़े हैं-
दो कदम ही बाद-
संगमूसा की पहाड़ी रास्ता रोके खड़ी है,
हम अपनी सारी चेतना के साथ
इसे विस्फोट देना चाहते हैं,
अब तक की उमर के
एक ही अपने-हमारे दर्द !
तुमने तो सारे सफ़र का साथ देने की
सौगंध ली थी,
इस नाजुक घड़ी में-
अलगाओं नही हमसे,
आ, हम अपनी चेतन-शक्तियों का भ्रूण
इस पहाड़ी की
जड़ों में गाड़ दें
कुछ धरा डोले,
आकाश कांपे,
और अरांकर ढह जाय यह काली पहाड़ी !
रास्ता बन जाय-
हमारे बाद आने वाले एक लम्बे काफ़िले
के लिये-
युग बोध हैं हम
पहलुए गर्भस्थ पीढ़ी के,
सुख से जिये
और कुंठायें लिये मरे
वे कौरव पाण्डव और यादव हम न कहलायें
हमारे दर्द !
हमसे जुड़े रहो तब तक कि
इस पहाड़ी पार के
घंटे घड़ियाल शंख फूंकें हम !