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4 / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
पहर पर पहर भर
संघर्ष के पश्चात
अफीमची अँधेरे की अँगुलियों से फिसल
उझके हुए
सूरज सरीखे हम
स्वरानी चोंच-कूहें
चिटखिटाती
पंखुरियों की पखावज
एक झीनी सी सरोदी गूँज भँवरों की-
हमारे
आगमन की सूचनाएँ
धूप पोरों से पखारी
तैरती ही जा रही
विस्तार के वातावरण में
दृष्टि बाँधे दूर अन्तों से
पड़ावों को अदेखा कर
उड़ी ही उड़ी जा रही
हमारी ये साँसें-क्रियाएँ !