सहम गई थी देख कर मैं चाँद का चेहरा,
अजब से पैरहन में कर रहा था वो फेरा,
न जाने कितने ही सायों ने था उसे घेरा!
किए सवाल परेशान कल कई मुझको...
क्या अंधेरों में ही रातों की गुज़र होने चली?
फलक की शम्मा मूँह छिपाए कहाँ सोने चली?
क्या इब्तिदा-ए-इंतिहा-ए-जहाँ होने चली?
तभी रौशन हुआ समाँ,
औ’ देखा पहलू में,
माह-ए-ताबाँ की,
पहले से भी,
उम्दा थी चमक!
मिलीं नज़रें तो
मुख़ातिब हो मुझसे,
कहने लगा:
(मगर जवाब सवालों की शक्ल में आए!)
“कहाँ थी तू,
जो मैं पिघला किया
आगोश-ए-समा?
कहाँ थी फिक्र मेरी,
तू थी कहीं और बसी!
शब-ए-हिज्राँ,
यहाँ भी सोने कहाँ देती थी!"
सँभलने भी न पाई थी, कि वो आगे बोला:
“ज़रा सी ग़र्द-ए-राह ले के
ज़मीं से ही उधार,
सँवारने में लगा तथा मैं अपना
नक्श-ओ-निगार!
उसी मस्रूफीयत में बदगुमानी तुझको हुई!
न मैं नासाज़,
न नज़रें चुरा,
गर्दां था वहाँ!
थीं वो तुझको ही लुभाने की सारी तदबीरें!"
तभी जानी सी,
औ’ पेहचानी सी आवाज़ सुनी:
“ग्रहण था मेरा,
तो तुझको वो लग गया कैसे?”
कही उसने,
कि बात मेरे लबों से निकली?
राज़ जाती हुई बदली ने फिर आख़िर खोला:
नहीं वाक़िफ़ क्या उस
अलहड़ की हरक़तों से तू?
चाँद के गम्ज़ को,
ग्रहण समझ के बैठी है?
(ये एक असल घटना पर आधारित है – 05 जून 1993 को 54 साल के बाद पूरनमासी के चाँद को ग्रहण लगा था और ये खबर दुनिया भर में फैल गई थी..!)