61-70 मुक्तक / प्राण शर्मा
६१
और जगह पर जाना ख़ुद को सच पूछो तो भटकाना है
मदिरा से वंचित जीवन को सच पूछो तो तरसाना है
प्यार भरा माहौल यहाँ का और कहाँ होगा ए यारो
इनसानों का सच्चा डेर सच पूछो तो मयख़ाना है
६२
जबकि सदा ही लहराता है दृश्य मनोहर मधुशाला का
जबकि सदा ही भरमाता है रूप सलोना मधुबाला का
मुझको क्या लेना-देना है बाग-बगीचे की ख़ुशबू से
जबकि सदा ही महकाता है मन को हर क़तरा हाला का
६३
सोंधि हवाओं की मस्ती में जीने का कुछ और मज़ा है
भीगे मौसम में घावों को सीने का कुछ और मज़ा है
मदिरा का रस दुगना-तिगना बढ़ जाता है मेरे प्यारे
बारिश की बूँदाबाँदी में पीने का कुछ और मज़ा है
६४
सन्यासी सारी दुनिया को झूठ बराबर बतलाता है
लेकिन पीनेवाला जग को सच्चा कहकर लहराता है
अन्तर हाँ अन्तर दोनों में धरती और अम्बर जितना है
सन्यासी जग ठुकराता है पीने वाला अपनाता है
६५
यह न समझना साक़ी तुझसे इक प्याले पर रोष करेंगे
तेरी कंजूसी का साक़ी सारे जग में घोष करेंगे
तुझको है मालूम सभी कुछ हम कितने धीरज वाले हैं
थोद्ई हो या ज्यादा मदिरा हम उससे सन्तोष करेंगे
६६
बीवी-बच्चों को बहलाकर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
घर वालों की ’हाँ’ को पाकर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
ऐसी बात नहींहै, मुझको घर की कोई फ़िक्र नहीं है
घर के काम सभी निबटा कर मयख़ाने को जाता हूँ मैं
६७
उपदेशक का बोल कसीला रिंदों को खलता जाएगा
रिंदों के मदिरा पीने से उपदेशक जलता जाएगा
आज अगर है भीड़ यहाँ पर कल को भीड़ वहाँ पर होगी
मधुशाला चलती जाएगी मन्दिर भी चलता जाएगा
६८
साक़ी, तेरे मयख़ाने में उज्ज्वल ही उज्ज्वल है सब कुछ
साक़ी, तेरे मयख़ाने में निर्मल ही निर्मल है सब कुछ
तेरे मयख़ाने में छ्ल हो सोच नहीं सकता मतवाला
साक़ी तेरे मयख़ाने में निश्छल ही निश्छल है सब कुछ
६९
इक दिन साक़ी बोला मुझसे तू कैसा मस्ताना है
बरसों से ही मयख़ाने में तेरा आना-जाना है
ए साक़ी, ऐसा लगता है मय की खातिर जमा हूँ
मयख़ाना ही मेरा घर है मेरा ठौर-ठिकाना है
७०
वक़्त सुहना बीत रहा है पीने और पिलाने में
आता है आनंद बड़ा ही मय के नग़में गाने में
शिकवा और शिकायत तुझसे हमको क्यों ए साक़ी
सुबह सुरा है शाम सुरा है तेरे इस मयख़ाने में