61 से 70 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 2
पद संख्या 63 तथा 64
( 63),
मन इतनोई या तनुको परम फलु। 
सब अँग सुभग बिंदुमाधव-छवि , तजि सुभाव ,अवलोकु एक पलु।1।
तरून अरून अंभोज चरन मृदु , नख -दुति हृदय -तिमिर-हारी। 
कुलिस केतु जव जलज रेख बर, अंकुस मन गज बसकारी।2। 
कनक-जटित मनि नूपुर , मेखल, कटि-तट रटति मधुर बानी। 
त्रिबली उदर, गँभीर नाभि सर , जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी।3। 
उर बनमाल , पदिक अति सोभित, बिप्र -चरन चित कहँ करषै। 
स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै।4। 
कर कंकन केयूर मनोहर, देति मोद मुद्रिक न्यारी। 
गदा कंज दर चारू चक्रधर, नाग -सुंड-सम भुज चारी।5।
कंबुग्रीव, छबिसीव चिबुक द्विज, अधर अरून,उन्नत नासा। 
नव राजीव नयन, ससि आनन, सेवक -सुखद बिसद हासा।6। 
रूचिर कपोल, श्रवन कुंडल , सिर मुकुट,सुतिलक भाल भ्राजै। 
ललित भृकुटि, सुंदर चितवनि, कच निरखि मधुप-अवली लाजै।7। 
 रूप सील-गुन खानि दच्छ दिसि, सिंधु-सुता रत -पद-सेवा। 
जाकी कृपा -कटाच्छ चहत सिव, बिधि, मुनि, मनुज, दनुज,देवा।8। 
तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब, जब मति येहि सरूप अटकै। 
नाहिंत दीन मलीन हीनसुख, कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै।9।
(64)
बंदौ रधुपति करूना-निधान। 
जाते छूटै भव-भेद-ग्यान।। 
रघुवंश-कुमुद-सुखप्रद निसेस। 
सेवत पद-पाथोज-भृंग। 
लावन्य बपुष अगनित अनंग।। 
अति प्रबल मोह-तम-मारतंड। 
अग्यान-गहन-पावक प्रचंड़।। 
अभिमान-सिंधु-कुंभज उदार। 
सुररंजन, भंजन भूमिभार।। 
रागासि-सर्पगन-पन्नगारि। 
कंदर्प-नाग-मृगपति, मुरारि।। 
भव-जलधि-पोत चरनारबिंद। 
जानकी-रवन आनंद-कंद।। 
हनुमंत-प्रेम-बापी-मराल। 
निष्काम कामधुक गो दयाल।। 
त्रैलोक-तिलक, गुनगहन राम। 
कह तुलसिदास बिश्राम-धाम।।
	
	