62/ हरीश भादानी
नींद में
डूबी हुई कमज़ोरियाँ
अचानक सातवें स्वर में
जब फूटती हैं
और घर की रोशनी का आँचल पकड़ कर
ज़र्द चेहरे
भूख की दुर्गध लेकर डोलते हैं-
हम समझते हैं-
यही है भोर की बेला !
बन-पाखियों के स्वर,
प्रभाती लोरियाँ
सारंग की भीनी पखावज,
गुलाबों सी महकती सुबह
फिर किस दिशा से झांकती है?
खीज का सूरज
जब तमतमाता है,
गीले कोलतार की सड़क पर
पांव दगते हैं,
कोरे कागजों पर
इतिहास की संज्ञा लगाती
लेखनी को
थकन जब घेर लेती है,
और जब अभावों के आँगन
नमकीन पानी के
बादल बरसते हैं,
हम समझते हैं-
इसी का नाम सावन है !
पनघटों पर पायली झंकार,
केवल एक बून्द की प्यासी
कोई चातकी मनुहार,
गहराई घटाओं से
रिमझिम बरसता सावन
फिर कौन से आकाश आता है !
सांस-
जब बीमार यादों पर
कफ़न ढालती है,
दूरियों को
जो तीरथ समझकर पूजती है,
धूप को
जो साथ चलने के लिए आवाज़ देती है
हम समझते हैं-
यही है ज़िन्दगी !
फिर किस ज़िन्दगी की बात करते हो ?