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67 / हरीश भादानी

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ओ,
हम से ही गर्भस्थ पिण्डी ! भ्रूणो !
जन्म लिया चाहने वाले हम-रूपो !
ठहरो !
अभी न जन्मो,
सारी धरती दुखी हुई है नासूरों से,
कुन्हा नासृरों से
और हमारा
पांव-पांव भीगा उठता है
रिस-रिस बढ़ती हुई पीप से
दाग़ी हैं दीवार, छतें, कंगूरे आँगन
इसलिये सुनो,
तुम अभीन जन्मो !
हम-
हवा नहीं बदबू पीते हैं,
रोटी नहीं भरम खाते हैं,
और अतीत की राख लपेटा करते हैं
नंगे शीर पर,
खीज के क्षय रोग ग्रसे हम लोग-
खाँसते हैं,
फेंकतें हैं खून
-कि कहीं कुछ सुर्ख तो दिखे,
वर्षों से काल पड़े सूरज पर
कुछ लाल छींटे तो पढ़ें,
तुम अभी न जन्मो,
सुनो, अनागत के ओ, भोक्ताओं !
जब हमारी
आखिरी धड़कन
जंग खाकर जड़ गए
आकाश को दरास्ती हुई टूटे
हमारी
आखिरी आवाज़
गूंगी दिशाओं को
सौ-सौ स्वरों की
गूँज जब देती हुई डूबे,
उस घड़ी तुम,
हमारे ही ताज़ा
बहुत ताज़ा संस्करण होकर निकलना,
ओ,
अभी गर्भस्थ पिण्डी !
तुम उस सुबह जनमना !