7.जीवन–शैली / सुधा गुप्ता
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बदल चुकी 
अब जीवन शैली 
चादर पूरी मैली 
लौटा मानव 
फिर आदि गुहा में 
हिंसा क्रूर, बनैली। 
1 
बदल चुकी 
जीवन शैली अब 
‘स्व’ में डूबे हैं सब 
माँ, मातृभाषा 
देसी, गँवार लगे 
विदेसी मन रमे। 
2 
भूले गौ–सेवा 
तुलसी का वन्दन 
गंगा–अभिनन्दन 
पोंछ डालते 
माँ भी लगा दे यदि 
माथे पर चन्दन। 
3 
आधी दुनिया 
अत्याचार सहती 
बरबाद हो गई 
पूजा की माला 
पैरों तले मसली 
नुची–टूटी–कुचली। 
4 
नई सभ्यता 
बस्ते का बोझ भारी 
लूटा है बचपन 
वंचक तन्त्र 
खो गई है मुनिया 
बनैले जन्तु–वन। 
5 
ममता भरी 
नेह की बौछार से 
जोड़ती परिवार 
अमृत–लेप 
संजीवनी बूटी माँ 
समझा नहीं कोई। 
6 
उम्र–क़ैद है 
बूढ़ी माँ की कोठरी 
खुलते न कपाट 
बेमियाद है 
कितनी लम्बी डोर ! 
पाया ओर न छोर ! 
7 
बाग़ हरा है 
फल–फूलों–भरा है 
अकूत है सम्पदा 
बाग़बाँ भूखा 
करता रखवाली 
न मिले रूखा–सूखा। 
8 
बूढ़ा पीपल 
कामनाओं के  धागों 
बँधा–जकड़ा खड़ा 
मन्नतों–लदा 
याचना–भार दबा 
रात–दिन जागता। 
9 
सहा न जाए 
भाई–पति–पुत्र से 
बहन–पत्नी–माँ का 
यश–उत्कर्ष 
खड़ी करें समस्या 
नित नए संघर्ष ! 
10 
छाया बन के  
जीती रही ताउम्र 
अबला रही नारी 
जिस दिन से 
खड़ी हुई अके ली 
नर पे पड़ी भारी। 
11 
न तो है छाया 
न कोई परछाइ 
मस्त खड़ा अकेला
पत्तों की माया 
नहीं लुभाती मुझे 
मैं ठूँठ अलबेला। 
12 
बेल का पेड़ 
फलों से लदा खड़ा 
अपने भार झुका
पत्ता न एक : 
अनुभव का पफल 
उम्र पकने पर। 
13 
बच्चे हुए हैं 
आकाश–कुसुम से 
पहुँच के  बाहर
मिल न पाऊँ 
सपनों में देख लूँ 
या मन के  भीतर। 
14 
नियति हँसी 
मेरे बाग़ की कली 
कहीं और जा खिली 
ठगी मैं खड़ी 
बस, यही दुआ की– 
‘नित बहार मिले’। 
15 
कुटज खोया 
कदम्ब बिसराया 
अश्वत्थ भी भुलाया 
सड़कों पर 
धूल फाँकता खड़ा 
कर्णिकार बेचारा। 
16 
बाग़ की शोभा 
फर्न, पाम, क्रोटन 
कैक्टस बेशुमार 
कौन तो पूछे 
देसी पेड़–पौधों को 
अब वे हैं गँवार। 
17 
रोते फिरते 
जूही, चम्पा, केवड़ा 
कुन्द, बेला, मोगरा 
जमाया कब्ज़ा 
रंग–भरे फूलों ने
सुगन्धिहीन सत्ता। 
18 
सजा बाग़ीचा 
विलायती फूलों से 
रंगारंग बहार 
मात खा गए 
हरी–भरी दूर्वा से 
यहीं हुए लाचार। 
19 
श्वेत वसना 
निर्मल थी नदिया 
तरंग में बहती 
खल मानव ! 
मलिन कर डाली 
वह शोभा अनूठी। 
20 
वायु–चीत्कार 
करता हाहाकार 
बचाए मुझे कोई 
धुएँ की मार 
खाँसता रात–दिन 
चैन की नींद खोई। 
21 
मानव–दम्भ 
आकाश किया छेद 
फिरता इतराता 
माथे में घाव 
लिये जब घूमेगा 
बन के  अश्वत्थामा। 
22 
पंछी की पीर 
सुनते तरु सदा 
और बँधाते धीर– 
रोयेंगे मिल 
मित्र–द्रोह कर के  
आरी–कुल्हाड़ी–तीर। 
23 
शाश्वत दृश्य : 
अनादि से अनन्त 
फैला है राज–पथ 
निर्लिप्त, मौन 
नहीं रखता वास्ता 
कौन किार चला ! 
24
सत्ता की प्यास 
अनबुझ, है सदा 
राम को वनवास 
हर युग में 
छली गई जनता 
हारी बैठी उदास। 
25 
नदी किनारे 
बगुला मन मारे 
राम–राम जपता 
हुए चतुर 
मछलियाँ, के कड़े 
कोई नहीं फँसता ! 
26 
अनाथ बच्चा 
आज बहुत रोया 
रात भूखा था सोया 
गलियों–घूमा 
ठिठुराता था शीत 
नहीं किसी ने पूछा। 
27
देश से छल ! 
किसी दिन पूछेगी 
जनता ‘हाल–चाल’ 
अरे लुटेरो ! 
आज़ादी बेच खाई 
हुए हो मालामाल !!
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