71 से 80 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4
पद 77 से 78 तक
(77),
जानकी-जीवन, जग-जीवन, जगत-हित,
जगदीस, रघुनाथ, राजीवलोचन राम।
सरद-बिधु-बदन, सुखसील, श्रीसदन,
सहज सुंदर तनु, सोभा अगनित काम।1।
जग-सुपिता, सुमातु, सुगुरू, सुहित, सुमीत,
सबको दाहिनो, दीनबन्धु, काहूको न बाम।
आरतिहरन, सरनद,अतुलित दानि,
प्रनतपालु, कृपालु, पतित-पावन नाम।2।
सकल बिस्व-बंदित, सकल सुर-सेवित,
आगम-निगम कहैं रावरेई गनग्राम।
इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम।3।
(78)
देव-
दीनको दयालु, दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहैां हौं देखौं दीन सोऊ।।
सुर, नर, मुनि, असुर, नाग, साहिब तौ घनेरे।
पै तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे।।
त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! सहबी तिहारी।।
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो।।
पाहन-पसु बिटप- बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके! श्रंक राय कीन्हें।।
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! त्ुलसिदास मेरो।।