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7 / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
ओ हमारी चेतनाओं !
प्रतीक्षा की उमर को
आखिरी क्षण दो,
धैर्य्य का पर्वत दरारो,
कि भीतर पक गया है भ्रूण
हरकतें झेली नहीं जाती
संघर्षती हर साँस
भींग कर निकलनी है पसीने से;
ओ, हमारी चेतनाओ !
तुम्हीं से तो बँधा है वह
शिराएँ तोड़ दो
एक केवल एक क्षण
उसे विस्फूटने दो
कि और अब झुलसे नहीं हमारा मन
और अब तोड़े नहीं हमारी हड्डियाँ
ओ हमारी चेतनाओं !
एक एकांकी इकाई की तरह
हमारी राख न हो
सुनो ! इसी क्षण
विस्फोटो हमारे भ्रूण को
कि सुलग जाए यह वातावरण
जो हमें घेरे खड़ा है
ओ हमारी चेतनाओं !