81 से 90 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 1
पद संख्या 81 तथा 82
(81),
 
दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, 
कारूनीक रघुराई। 
सुनहु नाथ!  मन जरत त्रिबिधि जुर, 
करत फिरत बौराई।1। 
कबहुँ जोगरत, भेाग-निरत, सठ 
हठ बियोग -बस होई। 
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, 
कबहुँ दया अति सोई।2। 
कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर , 
कबहुँ भूप अभिमानी। 
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत,  
कबहुँ धर्मरत ग्यानी।ं3 । 
कबहुँ देव! ज्ग धनमय , रिपुमय 
कबहुँ नारिमय भासै। 
संसृति-संन्निपात दारून दुख 
बिनु हरि-कृपा न नासै।4।  
संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत 
बहु भेषज -समुदाई।
 तुलसिदास भव-रोग रामपद
-प्रेम-हीन नहिं जाई।5।
 
(82),
मोहजनित  मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
 जनम जनम अभ्यास -निरत चित, अधिक अधिक लपटाई।1। 
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे। 
हृदय मलिन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख त्यागे।2। 
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये। 
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ- चरन बिसराये।3।
  तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप,  सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
 राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै।4।
	
	