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9/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
नींद आ जाती बुरा होता
रात में
दिन के मुखौटे उतरते हैं,
गूंगे अँधेरे की गवाही में
बहुत से खूबसूरत तन
बेहया मन खोलते हैं
जोड़ते तलपट किए व्यापार का,
यह सभी कुछ
अनपढ़ा रहता बुरा होता !
सुविधा से काटी हुई
एक मोटी छाँह पहने,
निपटाओंगे
दुलराते सहजा, अबोधा धूप को,
झरोखो से
मंचों से अक्षर पढ़ाते
इस तरह के लोग
अनदिखे रहते बुरा होता !
घास के आकाश नीचे
चूल्हों के मुहानों से
नमकीन गंगाएँ निकलती हैं हमेशा
पेट की नन्हीं मटकियों पर
पैबन्द वाले टाट से मनाई घाटियों में
गूँजते हैं रोटियों के गीत
ये गूँजें अनसुनी रहती बुरा होता !