91-100 मुक्तक / प्राण शर्मा
९१
हम सबको भीतर आने को बोलोगे तो जानेंगे
मदिरालय के सब दरवाज़े खोलोगे तो जानेंगे
पीने की अभिलाषा लेकर हम आये हैं साक़ी
हम सबको तुम एक बराबर तोलोगे तो जानेंगे
९२
कैसे फूल खिला करता है और कैसे मुरझाता है
जुगनू सारी रात चमक कर क्यों दिन में खो जाता है
साक़ी, मेरे मन में अक़सर प्रश्न उठा करता है यह
आता है इनसान कहाँ से और कहाँ को जाता है
९३
मदिरा मुझमें जीती है या मैं मदिरा में जीता हूँ
मदिरा मुझ बिन रीती है या मैं मदिरा बिन रीता हूँ
मदिरा जाने या मैं जानूँ तुम क्यों चिंतित हो जाहिद
मदिरा मुझको पीती है या मैं मदिरा को पीता हूँ
९४
तुझको तेरा मन्दिर प्यारा मुझको मेरी मधुशाला
तुझको तेरा अमृत प्यारा मुझको मेरी मृदु हाला
उपदेशक, तेरा-मेरा वाद-विवाद नहीं अच्छा
तुझको तेरा रब हो प्यारा मुझको मेरी मधुबाला
९५
मदिरा तन-मन को कुछ ज्यादा सरसाती है सन्ध्या में
मधुबाला प्याले कुछ ज्यादा छलकाती है सन्ध्या में
यूँ तो दौर चला करता है मधु का दिन में भी लेकिन
पीने की इच्छा कुछ ज्यादा बढ़ जाती है सन्ध्या में
९६
सावन-भादों सी मस्तानी
अमृत सी जीवन-कल्याणी
मन में क्या-क्या मस्ती घोले
छैल-छबीली मदिरा रानी
९७
मधुवन की यह कुंज गली है
शाश्वत खिलती मन की कली है
मधुशाला को कुछ भी कहो तुम
अपने लिए यह पुण्यस्थली है
९८
अपनी सब कुछ है मधुबाला
खूब लुटाती है जो हाला
और नहीं कोई लक्ष्य हमारा
लक्ष्य हमारा है मधुशाला
९९
इतनी जल्दी क्या है प्यारे
अभी नहीं निकले हैं तारे
दोस्त, नहीं घर प्यासे जाते
ले-ले मदिरा के चटकारे
१००
हर चिंता से दूर रहोगे
सुख सागर में नित्य बहोगे
थोड़ी-थोड़ी पीते रहना
दोस्त सदैव निरोग रहोगे