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"घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं / कुमार अनिल" के अवतरणों में अंतर

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<poem>घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं।
 
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चिराग बनके अंधेरों में जल रहा हूँ मैं।
 
चिराग बनके अंधेरों में जल रहा हूँ मैं।
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तेरे खयाल की उंगली पकड़ के दोस्त मेरे,
 
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गजल की वादी में कब से टहल रहा हूँ मैं।
 
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मैंयार उँचा है सच का, खुलूस का माना,
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मैअ।र उँचा है सच का, खुलूस का माना,
 
मगर ये मानके खुद को ही छल रहा हूँ मैं।
 
मगर ये मानके खुद को ही छल रहा हूँ मैं।
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न कारवां की जरूरत, न रहबरों से गरज,
 
न कारवां की जरूरत, न रहबरों से गरज,
 
जुनूने शौक में तन्हा ही चल रहा हूँ मैं।
 
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जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
 
जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
 
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं।
 
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं।
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कभी खयाल, कभी खवाब की खलिश बनकर,
 
कभी खयाल, कभी खवाब की खलिश बनकर,
 
तुम्हारी नींदों में अक्सर खलल रहा हूँ मैं।
 
तुम्हारी नींदों में अक्सर खलल रहा हूँ मैं।
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मैं इक शजर हूँ, बहारों के जश्न की खातिर,
 
मैं इक शजर हूँ, बहारों के जश्न की खातिर,
 
बदन पे सब्ज ये  पत्ते बदल रहा हूँ मैं।</poem>
 
बदन पे सब्ज ये  पत्ते बदल रहा हूँ मैं।</poem>

20:24, 8 दिसम्बर 2010 का अवतरण

घटा से चाँद की सूरत निकल रहा हूँ मैं।
चिराग बनके अंधेरों में जल रहा हूँ मैं।

तेरे खयाल की उंगली पकड़ के दोस्त मेरे,
गजल की वादी में कब से टहल रहा हूँ मैं।

मैअ।र उँचा है सच का, खुलूस का माना,
मगर ये मानके खुद को ही छल रहा हूँ मैं।

न कारवां की जरूरत, न रहबरों से गरज,
जुनूने शौक में तन्हा ही चल रहा हूँ मैं।

जहाँ पर सुबह के सूरज से हँस रहे हो तुम,
वहीं पर चाँद की मानिन्द गल रहा हूँ मैं।

कभी खयाल, कभी खवाब की खलिश बनकर,
तुम्हारी नींदों में अक्सर खलल रहा हूँ मैं।

मैं इक शजर हूँ, बहारों के जश्न की खातिर,
बदन पे सब्ज ये पत्ते बदल रहा हूँ मैं।